भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"नज़र में आजतक मेरी कोई तुझसा नहीं निकला / ओमप्रकाश यती" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
  
 
नज़र में आज तक मेरी कोई तुझसा नहीं निकला
 
नज़र में आज तक मेरी कोई तुझसा नहीं निकला
 +
 
तेरे चेहरे  के  अन्दर  दूसरा  चेहरा  नहीं निकला
 
तेरे चेहरे  के  अन्दर  दूसरा  चेहरा  नहीं निकला
  
 
कहीं  मैं  डूबने  से बच न    जाऊँ, सोचकर ऐसा
 
कहीं  मैं  डूबने  से बच न    जाऊँ, सोचकर ऐसा
 +
 
मेरे नज़दीक से होकर  कोई  तिनका नहीं निकला
 
मेरे नज़दीक से होकर  कोई  तिनका नहीं निकला
  
 
ज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो
 
ज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो
 +
 
भिखारी मुड़ गया पर  जेब से सिक्का नहीं निकला
 
भिखारी मुड़ गया पर  जेब से सिक्का नहीं निकला
  
 
सड़क पर  चोट खाकर  आदमी  ही था गिरा  लेकिन
 
सड़क पर  चोट खाकर  आदमी  ही था गिरा  लेकिन
 +
 
गुज़रती  भीड़  का उससे  कोई रिश्ता  नहीं निकला
 
गुज़रती  भीड़  का उससे  कोई रिश्ता  नहीं निकला
  
 
जहाँ पर ज़िन्दगी की , यूँ  कहें  खैरात  बँटती  थी
 
जहाँ पर ज़िन्दगी की , यूँ  कहें  खैरात  बँटती  थी
 +
 
उसी मन्दिर से कल देखा कोई ज़िन्दा नहीं निकला
 
उसी मन्दिर से कल देखा कोई ज़िन्दा नहीं निकला
 +
 
</poem>
 
</poem>

11:35, 26 फ़रवरी 2012 के समय का अवतरण

साँचा:KkGlobal {{KKRachna रचनाकार =ओमप्रकाश यती संग्रह= }} साँचा:KKatGhazal </poem>

नज़र में आज तक मेरी कोई तुझसा नहीं निकला

तेरे चेहरे के अन्दर दूसरा चेहरा नहीं निकला

कहीं मैं डूबने से बच न जाऊँ, सोचकर ऐसा

मेरे नज़दीक से होकर कोई तिनका नहीं निकला

ज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो

भिखारी मुड़ गया पर जेब से सिक्का नहीं निकला

सड़क पर चोट खाकर आदमी ही था गिरा लेकिन

गुज़रती भीड़ का उससे कोई रिश्ता नहीं निकला

जहाँ पर ज़िन्दगी की , यूँ कहें खैरात बँटती थी

उसी मन्दिर से कल देखा कोई ज़िन्दा नहीं निकला

</poem>