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"नान्हरिया गोपाल लाल, तू बेगि बड़ौ किन होहिं / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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नान्हरिया गोपाल लाल, तू बेगि बड़ौ किन होहिं ।
इहिं मुख मधुर बचन हँसिकै धौं, जननि कहै कब मोहिं ॥
यह लालसा अधिक मेरैं जिय जो जगदीस कराहिं ।
मो देखत कान्हर इहिं आँगन पग द्वै धरनि धराहिं ॥
खेलहिं हलधर-संग रंग-रुचि,नैन निरखि सुख पाऊँ ।
छिन-छिन छिधित जानि पय कारन, हँसि-हँसि निकट बुलाऊँ ॥
जअकौ सिव-बिरंचि-सनकादिक मुनिजन ध्यान न पावै ।
सूरदास जसुमति ता सुत-हित, मन अभिलाष बढ़ावै ॥

भावार्थ :--(माता कहती है-) `मेरे नन्हें गोपाल लाल ! तू झटपट बड़ा क्यों नहीं हो जाता । पता नहीं कब तू इस मुखसे हँसकर मधुर वाणीसे मुझे `मैया' कहेगा-मेरे हृदयमें यही अत्यंत उत्कण्ठा है । यदि इसे जगदीश्वर पूरा कर दें कि मेरे देखते हुए कन्हाई इस आँगनमें पृथ्वी पर अपने दोनों चरण रखे (पैरों चलने लगे)बड़े भाई बलरामके साथ वह आनन्दपूर्वक उमंगमें खेले और मैं आँखोंसे यह देखकर सुखी होऊँ । क्षण-क्षणमें भूखा समझकर दूध पिलानेके लिये मैं हँस-हँसकर पास बुलाऊँ ।' सूरदासजी कहते हैं कि शंकरजी, ब्रह्माजी, सनकादि ऋषि मुनिगण ध्यानमें भी जिसे नहीं पाते, उसी पुत्रके प्रेमसे माता यशोदा मनमें नाना प्रकारकी अभिलाषा बढ़ाया करती हैं ।