"खेलत नँद -आँगन गोबिंद / सूरदास" के अवतरणों में अंतर
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बाल दशा अवलोकि सकल मुनि, जोग बिरति बिसरावैं ॥<br><br> | बाल दशा अवलोकि सकल मुनि, जोग बिरति बिसरावैं ॥<br><br> | ||
− | भावार्थ :-- गोविन्द व्रजराज | + | भावार्थ :-- गोविन्द व्रजराज श्रीनन्दजी के आँगन में खेल रहे हैं । माता यशोदा उनके चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखको देख-देखकर अत्यन्त आनन्द पा रही हैं । मोहन की कटि में किंकिणी (करधनी) है । मस्तक पर चन्द्रिका है जिसके माणिक की लटकन ललाट झूल रही है । अत्यन्त सुन्दर कण्ठ में बघनखा पहिनाया है, जिसकी माला में बीच-बीच में हीरे और मूँगे लगे हैं । हाथों में पहुँची (गहना) है, चरणों में नूपुर हैं, शरीर पर पीताम्बर शोभा दे रहा है । आँगन में घुटनों से चलते हुए क्रीड़ा कर रहे हैं, मुखमें माखन लगा है । सूरदास जी कहते हैं कि श्यामसुन्दर की विचित्र लीला का वर्णन जिह्वा से हो नहीं पाता है । उनकी बालक्रीड़ा को देखकर सभी मुनिगण अपने योग तथा वैराग्य को भूल जाते हैं । |
20:26, 28 सितम्बर 2007 का अवतरण
राग धनाश्री
खेलत नँद -आँगन गोबिंद ।
निरखि-निरखि जसुमति सुख पावति, बदन मनोहर इंदु ॥
कटि किंकिनी चंद्रिका मानिक, लटकन लटकत भाल ।
परम सुदेस कंठ केहरि-नख, बिच-बिच बज्र प्रवाल ॥
कर पहुँची, पाइनि मैं नूपुर, तन राजत पट पीत ।
घुटुरुनि चलत, अजिर महँ बिहरत, मुख मंडित नवनीत ॥
सूर बिचित्र चरित्र स्याम कै रसना कहत न आवैं ।
बाल दशा अवलोकि सकल मुनि, जोग बिरति बिसरावैं ॥
भावार्थ :-- गोविन्द व्रजराज श्रीनन्दजी के आँगन में खेल रहे हैं । माता यशोदा उनके चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखको देख-देखकर अत्यन्त आनन्द पा रही हैं । मोहन की कटि में किंकिणी (करधनी) है । मस्तक पर चन्द्रिका है जिसके माणिक की लटकन ललाट झूल रही है । अत्यन्त सुन्दर कण्ठ में बघनखा पहिनाया है, जिसकी माला में बीच-बीच में हीरे और मूँगे लगे हैं । हाथों में पहुँची (गहना) है, चरणों में नूपुर हैं, शरीर पर पीताम्बर शोभा दे रहा है । आँगन में घुटनों से चलते हुए क्रीड़ा कर रहे हैं, मुखमें माखन लगा है । सूरदास जी कहते हैं कि श्यामसुन्दर की विचित्र लीला का वर्णन जिह्वा से हो नहीं पाता है । उनकी बालक्रीड़ा को देखकर सभी मुनिगण अपने योग तथा वैराग्य को भूल जाते हैं ।