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/* सृष्टि */
१.अखरावट के आरंभ में जायसी ने इस्लामिक धर्मग्रंथों और विश्वासों के आधार पर आधारित सृष्टि के उद्भव तथा विकास की कथा लिखी है। उनके इस कथा के अनुसार सृष्टि के आदि में महाशुन्य था, उसी शुन्य से ईश्वर ने सृष्टि की रचना की गई हे। उस समय गगन, धरती, सूर्य, चंद्र जैसी कोई भी चीज मौजूद नहीं थी। ऐसे शुन्य अंधकार में सबसे पहले पैगम्बर मुहम्मद की ज्योति उत्पन्न की --
 
गगन हुता नहिं महि दुती, हुते चंद्र नहिं सूर
 
ऐसइ अंधकूप महं स्पत मुहम्मद नूर।।
कुरान शरीफ एवं इस्लामी रवायतों में यह कहा जाता है कि जब कुछ नहीं था, तो केवल अल्लाह था। प्रत्येक जगह घोर अंधकार था। भारतीय साहित्य में भी इस संसार की कल्पना "अश्वत्थ' रुप में की गई है।
 
सातवां सोम कपार महं कहा जो दसवं दुवार।
 
जो वह पवंकिंर उधारै, सो बड़ सिद्ध अपार।।
इस पंक्तियों में जायसी ने मनुष्य शरीर के परे, गुद्येन्द्रिय, नाभि, स्तन, कंठ, भौंहों के बीच के स्थान और कपाल प्रदेशों में क्रमशः शनि, वृहस्पिति, मंगल, आदित्य, शुक्र, बुध और सोम की स्थिति का निरोपण किया है। ब्रह्म अपने व्यापक रुप में मानव देह में भी समाया हुआ है --
 
माथ सरग घर धरती भयऊ।
 
मिलि तिन्ह जग दूसर होई गयऊ।।
 
माटी मांसु रकत या नीरु।
 
नसे नदी, हिय समुद्र गंभीरु।।
इस्लामी धर्म के तीर्थ आदि का भी कवि ने शरीर में ही प्रदर्शित किया है --
 
सातौं दीप, नवौ खंड आठो दिशा जो आहिं।
 
जो ब्राह्मड सो पिंड है हेरत अंत न जाहिं।।
 
अगि, बाड, धुरि, चारि मरइ भांड़ा गठा।
 
आपु रहा भरि पूरि, मुहमद आपुहिं आपु महं।।
नाकि कंवल तर नारद लिए पांच कोतवार।
 
नवो दुवारि फिरै निति दसई कारखवार।।
अर्थात्, नाभि कमल के पास कोतवाल के रुप में शैतान का पहरा है।
 
==जीव ब्रह्मा==
सन् नरे सौ र्तृतालिस अहा।
 
कथा आरंभ बैन कवि कहा।।
 
 
सिंहलद्वीप पद्मिनी रानी।
 
रतनसेन चितउर गढ़ आनी।।
अलाउद्दीन देहली सुल्तानू।
 
राघव चेतन कीन्ह बखानू।।
 
सुना साहि गढ़ छेंकन आई।
 
हिंदू तुरकन्ह भई लराई।।
 
आदि अंत जस गाथा अहै।
 
लिखि भासा चौपाई कहै।।
कवि वियास कंवला रसपूरी।
 
दूरि सो निया नियर सो दूरी।।
 
नियरे दूर फूल जस कांटा।
 
दूरि सो नियारे जस गुरु चांटा।।
भंवर आई बन खण्ड सन लई कंवल के बास।
 
दादूर बास न पावई भलहि जो आछै पास।।
कवि इस पंक्ति के द्वारा बताना चाहता है कि यहाँ एक- से- एक बढ़कर कवि हुए हैं और यह कथा भी रस से भरी पड़ी है।
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