"कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी / सूरदास" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} राग धनाश्री कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी ।<br> ज...) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 13: | पंक्ति 13: | ||
चिरजीवहु जसुदा कौ नंदन सूरदास कौं तरनी ॥<br><br> | चिरजीवहु जसुदा कौ नंदन सूरदास कौं तरनी ॥<br><br> | ||
− | भावार्थ :-- कन्हाई अब पृथ्वीपर दो-दो पग चल लेता है । श्रीनन्द-रानी अपने | + | भावार्थ :-- कन्हाई अब पृथ्वीपर दो-दो पग चल लेता है । श्रीनन्द-रानी अपने मन में |
− | जो अभिलाषा करती थीं, उसे अब (प्रत्यक्ष) देख रही हैं । ( | + | जो अभिलाषा करती थीं, उसे अब (प्रत्यक्ष) देख रही हैं । (मोहन के) चरणों में रुनझुन |
− | नूपुर बजते हैं जिनकी ध्वनि | + | नूपुर बजते हैं जिनकी ध्वनि मन को अतिशय हरण करने वाली है । वे बैठ जाते हैं और |
− | फिर तुरंत उठ खड़े होते हैं - इस | + | फिर तुरंत उठ खड़े होते हैं - इस शोभा का तो वर्णन ही नहीं हो सकता । सुन्दरता के |
− | इस अद्भुत ढंगको देखकर व्रज की सब युवतियाँ थकित हो गयी हैं । | + | इस अद्भुत ढंगको देखकर व्रज की सब युवतियाँ थकित हो गयी हैं । सूरदास के लिये |
− | ( | + | (भवसागर की) नौकारूप श्रीयशोदानन्दन चिरजीवी हों । |
20:44, 28 सितम्बर 2007 का अवतरण
राग धनाश्री
कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी ।
जो मन मैं अभिलाष करति ही, सो देखति नँद-घरनी ॥
रुनुक-झुनुक नूपुर पग बाजत, धुनि अतिहीं मन-हरनी ।
बैठि जात पुनि उठत तुरतहीं सो छबि जाइ न बरनी ॥
ब्रज-जुवती सब देखि थकित भइँ, सुंदरता की सरनी ।
चिरजीवहु जसुदा कौ नंदन सूरदास कौं तरनी ॥
भावार्थ :-- कन्हाई अब पृथ्वीपर दो-दो पग चल लेता है । श्रीनन्द-रानी अपने मन में जो अभिलाषा करती थीं, उसे अब (प्रत्यक्ष) देख रही हैं । (मोहन के) चरणों में रुनझुन नूपुर बजते हैं जिनकी ध्वनि मन को अतिशय हरण करने वाली है । वे बैठ जाते हैं और फिर तुरंत उठ खड़े होते हैं - इस शोभा का तो वर्णन ही नहीं हो सकता । सुन्दरता के इस अद्भुत ढंगको देखकर व्रज की सब युवतियाँ थकित हो गयी हैं । सूरदास के लिये (भवसागर की) नौकारूप श्रीयशोदानन्दन चिरजीवी हों ।