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"कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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चिरजीवहु जसुदा कौ नंदन सूरदास कौं तरनी ॥<br><br>
 
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जो अभिलाषा करती थीं, उसे अब (प्रत्यक्ष) देख रही हैं । (मोहनके) चरणोंमें रुनझुन  
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नूपुर बजते हैं जिनकी ध्वनि मन को अतिशय हरण करने वाली है । वे बैठ जाते हैं और  
फिर तुरंत उठ खड़े होते हैं - इस शोभाका तो वर्णन ही नहीं हो सकता । सुन्दरताके
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इस अद्भुत ढंगको देखकर व्रज की सब युवतियाँ थकित हो गयी हैं । सूरदासके लिये  
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इस अद्भुत ढंगको देखकर व्रज की सब युवतियाँ थकित हो गयी हैं । सूरदास के लिये  
(भवसागरकी) नौकारूप श्रीयशोदानन्दन चिरजीवी हों ।
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(भवसागर की) नौकारूप श्रीयशोदानन्दन चिरजीवी हों ।

20:44, 28 सितम्बर 2007 का अवतरण

राग धनाश्री

कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी ।
जो मन मैं अभिलाष करति ही, सो देखति नँद-घरनी ॥
रुनुक-झुनुक नूपुर पग बाजत, धुनि अतिहीं मन-हरनी ।
बैठि जात पुनि उठत तुरतहीं सो छबि जाइ न बरनी ॥
ब्रज-जुवती सब देखि थकित भइँ, सुंदरता की सरनी ।
चिरजीवहु जसुदा कौ नंदन सूरदास कौं तरनी ॥

भावार्थ :-- कन्हाई अब पृथ्वीपर दो-दो पग चल लेता है । श्रीनन्द-रानी अपने मन में जो अभिलाषा करती थीं, उसे अब (प्रत्यक्ष) देख रही हैं । (मोहन के) चरणों में रुनझुन नूपुर बजते हैं जिनकी ध्वनि मन को अतिशय हरण करने वाली है । वे बैठ जाते हैं और फिर तुरंत उठ खड़े होते हैं - इस शोभा का तो वर्णन ही नहीं हो सकता । सुन्दरता के इस अद्भुत ढंगको देखकर व्रज की सब युवतियाँ थकित हो गयी हैं । सूरदास के लिये (भवसागर की) नौकारूप श्रीयशोदानन्दन चिरजीवी हों ।