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<poem>'''दरवाजे खोल रहे बौने'''
बन्दर के हाथों में
काँच के खिलौने
खोल रहे बौने
बारूदी ढेरों पर
शहरों के जंगल का
निष्प्रभ है सूरज
बौराया धीरज
मुखिया की चौखट के
आचरण घिनौने
मौसम के चेहरे पर
ठुकी हुयी हुई कीलें वासन्ती झोंको झोकों पर
मँडराती चीलें
व्याकुल हैं आँचल के
बन्दर के हाथों में
काँच के खिलौने
</poem>