"किस तरह से चीख निकले / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर
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चील गिद्धों ने | चील गिद्धों ने | ||
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ले लिए छत बीच अपने हैं बसेरे, | ले लिए छत बीच अपने हैं बसेरे, | ||
श्वान गलियों में | श्वान गलियों में | ||
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चीख़ निकले, | चीख़ निकले, | ||
होंठ पर लटका हुआ बेजान ताला । | होंठ पर लटका हुआ बेजान ताला । | ||
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21:49, 5 मार्च 2012 के समय का अवतरण
दर्द है पर
किस तरह से चीख़ निकले
होंठ पर लटका हुआ
बेजान ताला ।
बिल्लियों ने रोज़ काटा
रास्ते को
बंदिशों ने कामना का तन निचोड़ा,
ऑधियों ने रौंद डाली
पौध सारी
गर्दिशों ने आशियाना रोज़ तोड़ा,
नागफनियों ने
विषैली हरकतें की
तक्षकों ने पाँव दोनों
दंश डाला ।
रक्षकों ने ख़ुद
हदों को तोड करके
संधियाँ कर ली लुटेरे हिंसकों से,
मूर्तियाँ घर की चुराई
छल कपट से
खंजरों को घोप सीने मालिकों के,
घाव को पहले कुरेदा
उँगलियों से
बाद में फिर सान्त्वना का
अर्क डाला ।
चील गिद्धों ने
हवा में गंध पाकर
ले लिए छत बीच अपने हैं बसेरे,
श्वान गलियों में
खड़े हो हेरते हैं
हड्डियों के कब मिले उनको ठठेरे,
श्याम होता
जा रहा आकाश का पट
आचरण इतना हुआ है
आज काला ।
दर्द है पर किस तरह से
चीख़ निकले,
होंठ पर लटका हुआ बेजान ताला ।