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"मरा आँख का पानी / अवनीश सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर

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नयी चलन के इस कैफे में
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नये चलन के  
शिथिल हुयीं सब धाराएँ
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इस कैफ़े में
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शिथिल हुईं सब परम्पराएं
  
पियें-पिलायें, मौज उड़ायें
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पियें-पिलाएं
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मौज उड़ायें
 
डाल हाथ में हाथ चले  
 
डाल हाथ में हाथ चले  
देह उघारे, करें इशारे
+
देह उघारे
जुड़ें-जुड़ायें नयन-गले
+
करें इशारे
 +
नैन मिले
 +
औ' मिले गले  
  
मदहोशी में इतना बहके
+
मदहोशी में  
भूल गए सब सीमाएँ
+
इतना बहके
 +
भूल गए हैं सब सीमाएँ
  
 
झरी माथ से मादक बूँदें
 
झरी माथ से मादक बूँदें
सांसों में कुछ ताप चढ़ा
+
सांसों में  
हौले-हौले अन्दर-बाहर
+
कुछ ताप चढ़ा
कामुकता का चाप चढ़ा
+
हौले-हौले भीतर-बाहर
 +
कामुकता का  
 +
चाप चढ़ा
  
इक दूजे में इतना डूबे
+
एक दूसरे में
टूटीं सब मर्यादाएँ
+
जो डूबे  
 +
टूट गईं सब सब मर्यादाएँ
  
भैया मेरे, साधो मन को
+
भैया मेरे,
अजब-गजब-सी यह धरती
+
साधो मन को
 +
अजब-गजब है
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यह धरती
 
थोड़ा पानी रखो बचाकर
 
थोड़ा पानी रखो बचाकर
करते क्यों ऑंखें परतीं?
+
करते क्यों ऑंखें परतीं
  
जब-जब मरा आँख का पानी
+
जब-जब मरा  
आयीं तब-तब विपदाएँ
+
आँख का पानी
 +
आईं हैं तब-तब विपदाएँ
 
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20:15, 11 मार्च 2012 के समय का अवतरण

नये चलन के
इस कैफ़े में
शिथिल हुईं सब परम्पराएं

पियें-पिलाएं
मौज उड़ायें
डाल हाथ में हाथ चले
देह उघारे
करें इशारे
नैन मिले
औ' मिले गले

मदहोशी में
इतना बहके
भूल गए हैं सब सीमाएँ

झरी माथ से मादक बूँदें
सांसों में
कुछ ताप चढ़ा
हौले-हौले भीतर-बाहर
कामुकता का
चाप चढ़ा

एक दूसरे में
जो डूबे
टूट गईं सब सब मर्यादाएँ

भैया मेरे,
साधो मन को
अजब-गजब है
यह धरती
थोड़ा पानी रखो बचाकर
करते क्यों ऑंखें परतीं

जब-जब मरा
आँख का पानी
आईं हैं तब-तब विपदाएँ