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"हो गया है यन्त्रवत / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर
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'''हो गयी यंत्रवत''' | '''हो गयी यंत्रवत''' | ||
− | हो गयी यंत्रवत अब जिंदगी यह, | + | हो गयी है यंत्रवत अब जिंदगी यह, |
मन समझ जज्बात को पाता नहीं। | मन समझ जज्बात को पाता नहीं। | ||
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कट रहे नित कामना के पंख फैले | कट रहे नित कामना के पंख फैले | ||
लौह सी कटुधारियां मन पर खिंची, | लौह सी कटुधारियां मन पर खिंची, | ||
− | व्योम उठती आंधियों | + | व्योम उठती आंधियों को देखकर |
स्तब्ध होकर रह गयी आंखें भिंची, | स्तब्ध होकर रह गयी आंखें भिंची, | ||
हो गये हैं दृष्टि से वर्णान्ध ऐसे, | हो गये हैं दृष्टि से वर्णान्ध ऐसे, | ||
अब धुंआ उठता नजर आता नहीं। | अब धुंआ उठता नजर आता नहीं। | ||
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टूटते निःशब्द होकर भाव मनके | टूटते निःशब्द होकर भाव मनके | ||
− | + | पात जैसे टूट तरू से हों गिरे, | |
घिर गये हैं उलझनों से आज ऐसे | घिर गये हैं उलझनों से आज ऐसे | ||
− | + | मेघ से जैसे सितारे हों घिरे, | |
हो गये कुछ इस तरह से दिग्भृमित हैं, | हो गये कुछ इस तरह से दिग्भृमित हैं, | ||
रास्ता अब दिख रहा जाता नहीं । | रास्ता अब दिख रहा जाता नहीं । | ||
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घट रहे हैं मूल्य-नैतिक आदमी के | घट रहे हैं मूल्य-नैतिक आदमी के | ||
− | भोर की परछांइयां जैसे | + | भोर की परछांइयां जैसे घटें |
कट रहे हैं दिवस गिन गिन जिन्दगी के | कट रहे हैं दिवस गिन गिन जिन्दगी के | ||
− | भूख से व्याकुल हुये पल ज्यों | + | भूख से व्याकुल हुये पल ज्यों कटें, |
हैं प्रफुल्लित चन्द सिक्कों की खनक सुन, | हैं प्रफुल्लित चन्द सिक्कों की खनक सुन, | ||
राग कोई और मन भाता नहीं । | राग कोई और मन भाता नहीं । | ||
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22:13, 16 मार्च 2012 के समय का अवतरण
हो गयी यंत्रवत
हो गयी है यंत्रवत अब जिंदगी यह,
मन समझ जज्बात को पाता नहीं।
कट रहे नित कामना के पंख फैले
लौह सी कटुधारियां मन पर खिंची,
व्योम उठती आंधियों को देखकर
स्तब्ध होकर रह गयी आंखें भिंची,
हो गये हैं दृष्टि से वर्णान्ध ऐसे,
अब धुंआ उठता नजर आता नहीं।
टूटते निःशब्द होकर भाव मनके
पात जैसे टूट तरू से हों गिरे,
घिर गये हैं उलझनों से आज ऐसे
मेघ से जैसे सितारे हों घिरे,
हो गये कुछ इस तरह से दिग्भृमित हैं,
रास्ता अब दिख रहा जाता नहीं ।
घट रहे हैं मूल्य-नैतिक आदमी के
भोर की परछांइयां जैसे घटें
कट रहे हैं दिवस गिन गिन जिन्दगी के
भूख से व्याकुल हुये पल ज्यों कटें,
हैं प्रफुल्लित चन्द सिक्कों की खनक सुन,
राग कोई और मन भाता नहीं ।