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"देखो अद्भुत अबिगत की गति, कैसौ रूप धर्‌यौ है / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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सोई सूर प्रगट या ब्रज मैं, गोकुल-गोप-बिहारी (हो) !<br><br>
 
सोई सूर प्रगट या ब्रज मैं, गोकुल-गोप-बिहारी (हो) !<br><br>
  
भावार्थ :-- अविज्ञात-गति प्रभुकी यह अद्भुत लीला तो देखो ! (इन्होंने) कैसा रूपधारण किया है ! तीनों लोक जिसके उदररूपी भवनमें रहते हैं, वह (अवतार लेकर)सूपके कोनेमें पड़ा था । जिसकी (नाभिसे निकले, कमलनालसे ब्रह्माजी तथा ब्रह्माजीसेसभी देवता उत्पन्न हुए, जिन्होंने सभी योग और व्रतोंकी साधनाकी, उसी (परम पुरुष) की नालको काटकर व्रजयुवतियोंने बँटे हुए धागे से बाँधा । जिस श्रीमुखका दर्शन करने के लिये आराधनामें एकाग्र होकर शंकरजी समाधि लगाते हैं, दूधकी लारसे सने उसी मुखका व्रजरानी यशोदाजी चुम्बन करती हैं । जिन कानों से भक्तों की विपत्ति सुनकर गरुड़को भी छोड़कर प्रभु दौड़ पड़ते हैं, उन्हीं कानोंके निकट मुख ले जाकर यशोदाजी थपकी देते हुए (लोरी) गाती हैं । जो पूरे विश्वका भरण-पोषण करते हैं और जो सर्वसमर्थ हैं, वे मक्खन पानेके लिये हठ कर रहे हैं । जिनके विराट्‌रूपके एक-एक रोममें कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड हैं, वे पलनेमें पड़े हैं । जिस भुजाके बलसे हिरण्यकशिपुका हृदय फाड़कर प्रह्लादकी रक्षा की, (आज) उसी भुजाको पकड़कर व्रजकी नारियाँ कहती हैं- `लाल! खड़ा तो हो जा!' जिसको देवता और मुनि ध्यानमें भी नहीं पाते, शंकरजी जिनसे समाधि (चित्तकी पूर्ण एकाग्रता) नहीं हटा पाते, सूरदासजी कहते हैं कि वही प्रभु गोकुलके गोपोंमें क्रीड़ा करनेके लिये इस व्रजभूमिमें प्रकट हुए हैं ।
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भावार्थ :-- अविज्ञात-गति प्रभु की यह अद्भुत लीला तो देखो ! (इन्होंने) कैसा रूपधारण किया है ! तीनों लोक जिसके उदररूपी भवन में रहते हैं, वह (अवतार लेकर)सूप के कोने में पड़ा था । जिसकी (नाभि से निकले, कमलनाल से ब्रह्मा जी तथा ब्रह्मा जी से सभी देवता उत्पन्न हुए, जिन्होंने सभी योग और व्रतों की साधना की, उसी (परम पुरुष) की नाल को काटकर व्रज युवतियों ने बँटे हुए धागे से बाँधा । जिस श्रीमुखका दर्शन करने के लिये आराधना में एकाग्र होकर शंकर जी समाधि लगाते हैं, दूध की लारसे सने उसी मुख का व्रजरानी यशोदा जी चुम्बन करती हैं । जिन कानों से भक्तों की विपत्ति सुनकर गरुड़ को भी छोड़कर प्रभु दौड़ पड़ते हैं, उन्हीं कानों के निकट मुख ले जाकर यशोदा जी थपकी देते हुए (लोरी) गाती हैं । जो पूरे विश्व का भरण-पोषण करते हैं और जो सर्व समर्थ हैं, वे मक्खन पाने के लिये हठ कर रहे हैं । जिनके विराट्‌रूप के एक-एक रोम में कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड हैं, वे पलने में पड़े हैं । जिस भुजा के बल से हिरण्यकशिपुका हृदय फाड़कर प्रह्लाद की रक्षा की, (आज) उसी भुजा को पकड़कर व्रज की नारियाँ कहती हैं- `लाल! खड़ा तो हो जा!' जिसको देवता और मुनि ध्यान में भी नहीं पाते, शंकर जी जिनसे समाधि (चित्त की पूर्ण एकाग्रता) नहीं हटा पाते, सूरदास जी कहते हैं कि वही प्रभु गोकुल के गोपों में क्रीड़ा करने के लिये इस व्रजभूमि में प्रकट हुए हैं ।

20:55, 28 सितम्बर 2007 का अवतरण

राग आसावरी

देखो अद्भुत अबिगत की गति, कैसौ रूप धर्‌यौ है (हो)!
तीनि लोक जाकें उदर-भवन, सो सूप कैं कोन पर्‌यौ है (हो)!
जाकैं नाल भए ब्रह्मादिक, सकल जोग ब्रत साध्यो (हो)!
ताकौ नाल छीनि ब्रज-जुवती बाँटि तगा सौं बाँध्यौ (हो) !
जिहिं मुख कौं समाधि सिव साधी आराधन ठहराने (हो) !
सो मुख चूमति महरि जसोदा, दूध-लार लपटाने (हो) !
जिन स्रवननि जन की बिपदा सुनि, गरुड़ासन तजि धावै (हो) !
तिन स्रवननि ह्वै निकट जसोदा, हलरावै अरु गावै (हो) !
बिस्व-भरन-पोषन, सब समरथ, माखन-काज अरे हैं (हो) !
रूप बिराट कोटि प्रति रोमनि, पलना माँझ परे हैं (हो) !
जिहिं भुज बल प्रहलाद उबार्‌यौ, हिरनकसिप उर फारे (हो)
सो भुज पकरि कहति ब्रजनारी, ठाढ़े होहु लला रे (हो) !
जाकौ ध्यान न पायौ सुर-मुनि, संभु समाधि न टारी (हो)!
सोई सूर प्रगट या ब्रज मैं, गोकुल-गोप-बिहारी (हो) !

भावार्थ :-- अविज्ञात-गति प्रभु की यह अद्भुत लीला तो देखो ! (इन्होंने) कैसा रूपधारण किया है ! तीनों लोक जिसके उदररूपी भवन में रहते हैं, वह (अवतार लेकर)सूप के कोने में पड़ा था । जिसकी (नाभि से निकले, कमलनाल से ब्रह्मा जी तथा ब्रह्मा जी से सभी देवता उत्पन्न हुए, जिन्होंने सभी योग और व्रतों की साधना की, उसी (परम पुरुष) की नाल को काटकर व्रज युवतियों ने बँटे हुए धागे से बाँधा । जिस श्रीमुखका दर्शन करने के लिये आराधना में एकाग्र होकर शंकर जी समाधि लगाते हैं, दूध की लारसे सने उसी मुख का व्रजरानी यशोदा जी चुम्बन करती हैं । जिन कानों से भक्तों की विपत्ति सुनकर गरुड़ को भी छोड़कर प्रभु दौड़ पड़ते हैं, उन्हीं कानों के निकट मुख ले जाकर यशोदा जी थपकी देते हुए (लोरी) गाती हैं । जो पूरे विश्व का भरण-पोषण करते हैं और जो सर्व समर्थ हैं, वे मक्खन पाने के लिये हठ कर रहे हैं । जिनके विराट्‌रूप के एक-एक रोम में कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड हैं, वे पलने में पड़े हैं । जिस भुजा के बल से हिरण्यकशिपुका हृदय फाड़कर प्रह्लाद की रक्षा की, (आज) उसी भुजा को पकड़कर व्रज की नारियाँ कहती हैं- `लाल! खड़ा तो हो जा!' जिसको देवता और मुनि ध्यान में भी नहीं पाते, शंकर जी जिनसे समाधि (चित्त की पूर्ण एकाग्रता) नहीं हटा पाते, सूरदास जी कहते हैं कि वही प्रभु गोकुल के गोपों में क्रीड़ा करने के लिये इस व्रजभूमि में प्रकट हुए हैं ।