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"लौटे बचपन! / अवनीश सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर

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कभी अयुध्या मन में बसती
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अब न अजुध्या
कभी अयुध्या के बाहर मन
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मन में बसती
चिंताओं के मकड़जाल से
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अब न बगाइच
मुक्त डोलता कोमल जीवन  
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वाला वह मन  
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कंकरीट के  
 +
मकड़जाल ने
 +
फांस लिया है
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सादा जीवन  
  
बचपन के तो चंद इशारे
+
कभी पकड़ना
माँ समझे या समझे बापू
+
अपनी छाया
जिनकी ओली ही लगती है
+
कभी छाँह से
सबसे ऊंचा सुन्दर टापू
+
डर कर रहना
 +
कभी चाँद-
 +
तारों को चाहें
 +
कभी धूप के
 +
मोती चुनना
  
क्या सोना तब हीरा- मोती
+
रस था
क्या माने रखता सिंहासन!
+
आमों के झगड़ों में
 +
'कुट्टी' में भी
 +
था अपनापन
  
कभी चाँद - तारों की बातें
+
छोटेपन के
कभी धूप के मोती चुनना
+
बाल-इशारे
कभी पकड़ना अपनी छाया
+
माँ समझे या समझे
अपने मन की आहट सुनना
+
बापू
 +
जिनकी ओली ही
 +
लगती थी
 +
सबसे ऊंचा
 +
सुन्दर टापू
  
छोटे-छोटे खेलों में भी
+
गाँव किनारे
हो जाती थी मीठे अनबन!
+
जखई बाबा
 +
का वह चौपड़ 
 +
था सिंहासन
  
चढी जवानी देखे सपने
+
धुक-धुक-धुक-धुक  
बोझिल झुके हुए हैं कंधे
+
जी करता है
धुक-धुक-धुक-धुक जी करता है
+
कितने फंदे,
कितने फंदे- कितने धंधे!
+
कितने धंधे
 +
चढी जवानी
 +
देखे सपना
 +
बोझिल
 +
झुके हुए हैं कंधे
  
मन ही मन बस यह ही चाहूँ  
+
मन ही मन  
लौटे फिर मुझमें बचपन!
+
यह चाहूँ मुझमें
 +
लौटे फिर से
 +
मेरा बचपन
 
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09:28, 19 मार्च 2012 के समय का अवतरण

अब न अजुध्या
मन में बसती
अब न बगाइच
वाला वह मन
कंकरीट के
मकड़जाल ने
फांस लिया है
सादा जीवन

कभी पकड़ना
अपनी छाया
कभी छाँह से
डर कर रहना
कभी चाँद-
तारों को चाहें
कभी धूप के
मोती चुनना

रस था
आमों के झगड़ों में
'कुट्टी' में भी
था अपनापन

छोटेपन के
बाल-इशारे
माँ समझे या समझे
बापू
जिनकी ओली ही
लगती थी
सबसे ऊंचा
सुन्दर टापू

गाँव किनारे
जखई बाबा
का वह चौपड़
था सिंहासन

धुक-धुक-धुक-धुक
जी करता है
कितने फंदे,
कितने धंधे
चढी जवानी
देखे सपना
बोझिल
झुके हुए हैं कंधे

मन ही मन
यह चाहूँ मुझमें
लौटे फिर से
मेरा बचपन