"बना लेगी वह अपने मन की हंसी / कुमार मुकुल" के अवतरणों में अंतर
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08:13, 30 मार्च 2012 के समय का अवतरण
अक्सर वह
मुझसे खेलने के मूड में रहती है
खेलने की उम्र में
पहरे रहे हों शायद
गुडि़यों का खेल भी ना खेलने दिया गया हो
सो मैं गुड्डों सा रहूं
तो पसंद है उसे
मुझे बस पड़े रहना चाहिए
चुप-चाप
किताबें तो कदापि नहीं पढनी चाहिए
बस
मुस्कुराना चाहिए
वैसे नहीं
जैसे मनुष्य मुस्कुराते हैं-
तब तो वह पूछेगी-
किसी की याद तो नहीं आ रही
फिर तो
महाभारत हो सकता है
इसीलिए मुझे
एक गुड्डे की तरह हंसना चाहिए
अस्पष्ट
कोई कमी होगी
तो सूई-धागा- काजल ले
बना लेगी वह
अपने मन की हंसी
जैसे
अपनी भौं नोचते हुए वह
खुद को सुंदर बना रही होती है
मेरे कपड़े फींच देगी वह
कमरा पोंछ देगी
बस मुझे बैठे रहना चाहिए
चौकी पर पैर हिलाते हुए
जब-तक कि फर्श सूख ना जाए
मेरे मित्रों को देख उसे बहुत खुशी होती
उसे लगता कि वे
उसके गुड्डे को देखने आए हैं
वह बोलेगी-देखिए मैं कितना ख्याल रखती हूं इनका
ना होती तो बसा जाते
फिर वह भूल जाती
कि वे उसकी सहेलियां नहीं हैं
और उनके कुधे पर धौल दे बातें करने लगेगी
बेतकल्लुफी से
बस मुझे
चुप रहना चाहिए इस बीच