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राजा था
बेलबुटों की बुनावट से सजा-धजा महल था
रुत थी मौसम था
वाहवाही थी
साथ-साथ राजा के वाहवाह करनेवालों की
साज थे
फिज़ा में ढलती मौसिकी थी
गान था
अपनी लय में चढती-उतरती तान थी
नृत्य था
अपनी तमाम मुद्राओं में मृदुल नुपूर-नाद लिए
राजा के फ़रमान से
सजी तो थी महफ़िल मगर
साजिंदें नहीं थे
गायक नहीं था
नर्तकी नहीं थी
कला के पाखंडी उत्सव में
उपस्थित नहीं थीं उनकी आत्माएं
वे तो उनके बुत थे
जिन पर अटकी हुई थीं सबकी आंखें