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भावार्थ :-- (माता कहती हैं-) `मेरे कुँवर कन्हाई! मैं बार-बार बलिहारी जाती हूँ मीठे स्वर से कुछ गाओ तो। अब की बार नाचकर नाच कर अपने बाबा को (अपना नृत्य) दिखा दो । अपने हाथ से ही ताली बजाओ, इस प्रकार मेरे हृदय में परम प्रेम उत्पन्न करो । तुम किसी दूसरे जीवका जीव का शब्द सुनकर डर क्यों रहे हो, अपनी भुजाएँ मेरे गले में डाल दो । (मेरी गोद में आ जाओ ।) मेरे लाल! अपने मन में कोई शंका मत करो! क्यों संदेह में पड़ते हो (भय का कोई कारण नहीं है) । कलकी कल की भाँति भुजाओं को उठाकर अपनी `धौरी' गैया को बुलाओ । मैं तुम्हारी बलिहारी जाऊँ, तनिक नाचो और अपनी मैया की इच्छा पूरी कर दो । रत्नजटित करधनी और चरणों के नूपुर को अपनी मौज से (नाचते हुए) बजाओ । (देखो) स्वर्ण के खम्भे में एक शिशुका शिशु का प्रतिबिंब है, उसे मक्खन खिला दो ।' सूरदासजी सूरदास जी कहते हैं, श्यामसुन्दर ! मेरे हृदय से आप तनिक भी कहीं टल जायँ, यह मुझे जरा भी अच्छा न लगे । रतन-जटित किंकिनि पग-नूपुर, अपने रंग बजावहु ॥कनक-खंभ प्रतिबिंबित सिसु इक, लवनी ताहि खवावहु ।सूर स्याम मेरे उर तैं कहुँ टारे नैंकु न भावहु ॥
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