भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छोड़ दूंगा द्वार तक, कुछ देर तो ठहरो अभी,
हे सुवासित वायु ,मेरी पीर को छू कर जाना .
शब्द में बिखरी हुई जागीर को छू कर जाना.
नेह भीगा याद, सम्बोधन किसी का है अभी.
मन बंधा इस छोर से उस छोर तक जिस बन्ध से,
हे विभाजित ,वायु उस ज़ंजीर को छु छू कर जाना.
एक बिन बरसी घटा को ,बांध रखना है अभी,
एक रसवंती व्यथा का, मान रखना है अभी.
मान-सुमन की पंखुरी की ,कोर से छलका है जो,हे प्रफुल्लित वायु पवन ,पावन नीर को छू कर जाना.
आज फिर अवसाद ,तिल-तिल कर कटा है रात भर,आज फिर प्रासाद ,सपनों में बना है रात भर.
मत ठहरना कल्पना के रंगमहलों में कभी.
हे समाहित वायु ,बस प्राचीर को छू कर जाना.
चार वेदों में भरा आभास ,लेकर जाइये ,क्रोंच-वध के बाद का इतिहास , लेकर जाइये.
साथ में रसखान, तुलसी, सूर, मीरा, जायसी.
हे निनादित वायु ग़ालिब, मीर को छू कर जाना.
</Poem>