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{{KKRachna|रचनाकार: [[=मंगलेश डबराल]][[Category:कविताएँ]][[Category:|संग्रह=हम जो देखते हैं / मंगलेश डबराल]]}}{{KKAnthologyVarsha}}{{KKCatKavita}}<poem>खिड़की से अचानक बारिश आईएक तेज़ बौछार ने मुझे बीच नींद से जगायादरवाज़े खटखटाए ख़ाली बर्तनों को बजायाउसके फुर्तील्रे क़दम पूरे घर में फैल गएवह काँपते हुए घर की नींव में धँसना चाहती थीपुरानी तस्वीरों टूटे हुए छातों और बक्सों के भीतरपहुँचना चाहती थी तहाए हुए कपड़ों कोबिखराना चाहती थी वह मेरे बचपन में बरसनाचाहती थी मुझे तरबतर करना चाहती थीस्कूल जानेवाले रास्ते पर
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~बारिश में एक एक कर चेहरे भीगते थेजो हमउम्र थे पता नहीं कहाँ तितरबितर हो गए थेउनके नाम किसी और बारिश में पुँछ गए थे भीगती हुई एक स्त्री आई जिसका चेहराबारिश की तरह था जिसके केशों में बारिशछिपी होती थी जो फ़िर एक नदी बनकरचली जाती थी इसी बारिश में एक दिनमैं दूर तक भीगता हुआ गया इसी में कहीं लापताहुआ भूल गया जो कुछ याद रखना थाइसी बारिश में कहीं रास्ता नहीं दिखाई दियाइसी में बूढ़ा हुआ जीवन समाप्त होता हुआ दिखा एक रात मैं घर लौटा जब बारिश थी पिताइंतज़ार करते थे माँ व्याकुल थी बहनें दूर से एक साथदौड़ी चली आई थीं बारिश में हम सिमटकरपास-पास बैठ गए हमने पुरानी तस्वीरें देखींजिन पर कालिख लगी थी शीशे टूटे थे बारिशबार बार उन चेहरों को बहाकर ले जाती थीबारिश में हमारी जर्जरता अलग तरह की थीपिता की बीमारी और माँ की झुर्रियाँ भी अनोखी थींहमने पुराने कमरों में झाँककर देखा दीवारेंसाफ़ कीं जहाँ छत टपकती थी उसके नीचे बर्तनरखे हमने धीमे धीमे बात की बारिशहमारे हँसने और रोने को दबा देती थीइतने घने बादलों के नीचे हम बार बारप्रसन्न्ता के किसी किनारे तक जाकर लौट आते थेबारिश की बूँदें आकर लालटेन का काँचचिटकाती थीं माँ बीच बीच में उठकर देखती थीकहीं हम भीग तो नहीं रहे बारिश में । (1991)</poem>