भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सहर्ष स्वीकारा है / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
कवि: [[गजानन माधव मुक्तिबोध]]
+
{{KKGlobal}}
[[Category:कविताएँ]]
+
{{KKRachna
[[Category:गजानन माधव मुक्तिबोध]]
+
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध  
 +
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
ज़िन्दगी में जो कुछ है, जो भी है
 +
सहर्ष स्वीकारा है;
 +
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
 +
वह तुम्हें प्यारा है।
 +
गरबीली ग़रीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब
 +
यह विचार-वैभव सब
 +
दृढ़्ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब
 +
मौलिक है, मौलिक है
 +
इसलिए के पल-पल में
 +
जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है--
 +
संवेदन तुम्हारा है !! 
  
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
जाने क्या रिश्ता है,जाने क्या नाता है
 +
जितना भी उँड़ेलता हूँ,भर भर फिर आता है
 +
दिल में क्या झरना है?
 +
मीठे पानी का सोता है
 +
भीतर वह, ऊपर तुम
 +
मुसकाता चाँद ज्यों धरती पर रात-भर
 +
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है! 
  
ज़िन्दगी में जो कुछ है, जो भी है<br>
+
सचमुच मुझे दण्ड दो कि भूलूँ मैं भूलूँ मैं
सहर्ष स्वीकारा है;<br>
+
तुम्हें भूल जाने की
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है<br>
+
दक्षिण ध्रुवी अंधकार-अमावस्या
वह तुम्हें प्यारा है।<br>
+
शरीर पर,चेहरे पर, अंतर में पा लूँ मैं
गरबीली ग़रीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब<br>
+
झेलूँ मै, उसी में नहा लूँ मैं
यह विचार-वैभव सब<br>
+
इसलिए कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित
दृढ़्ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब<br>
+
रहने का रमणीय यह उजेला अब
मौलिक है, मौलिक है<br>
+
सहा नहीं जाता है।
इसलिए के पल-पल में<br>
+
नहीं सहा जाता है।
जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है--<br>
+
ममता के बादल की मँडराती कोमलता--  
संवेदन तुम्हारा है !!<br><br>
+
भीतर पिराती है  
 +
कमज़ोर और अक्षम अब हो गयी है आत्मा यह
 +
छटपटाती छाती को भवितव्यता डराती है  
 +
बहलाती सहलाती आत्मीयता बरदाश्त नही होती है !!!
  
जाने क्या रिश्ता है,जाने क्या नाता है<br>
+
सचमुच मुझे दण्ड दो कि हो जाऊँ  
जितना भी उँड़ेलता हूँ,भर भर फिर आता है<br>
+
पाताली अँधेरे की गुहाओं में विवरों में  
दिल में क्या झरना है?<br>
+
धुएँ के बाद्लों में  
मीठे पानी का सोता है<br>
+
बिलकुल मैं लापता!!  
भीतर वह, ऊपर तुम<br>
+
लापता कि वहाँ भी तो तुम्हारा ही सहारा है!!  
मुसकाता चाँद ज्यों धरती पर रात-भर<br>
+
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है  
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है!<br><br>
+
या मेरा जो होता-सा लगता है, होता सा संभव है  
 
+
सभी वह तुम्हारे ही कारण के कार्यों का घेरा है, कार्यों का वैभव है  
सचमुच मुझे दण्ड दो कि भूलूँ मैं भूलूँ मैं<br>
+
अब तक तो ज़िन्दगी में जो कुछ था, जो कुछ है  
तुम्हें भूल जाने की<br>
+
सहर्ष स्वीकारा है  
दक्षिण ध्रुवी अंधकार-अमावस्या<br>
+
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है  
शरीर पर,चेहरे पर, अंतर में पा लूँ मैं<br>
+
वह तुम्हें प्यारा है ।
झेलूँ मै, उसी में नहा लूँ मैं<br>
+
</poem>
इसलिए कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित<br>
+
रहने का रमणीय यह उजेला अब<br>
+
सहा नहीं जाता है।<br>
+
नहीं सहा जाता है।<br>
+
ममता के बादल की मँडराती कोमलता--<br>
+
भीतर पिराती है<br>
+
कमज़ोर और अक्षम अब हो गयी है आत्मा यह<br>
+
छटपटाती छाती को भवितव्यता डराती है<br>
+
बहलाती सहलाती आत्मीयता बरदाश्त नही होती है !!!<br><br>
+
 
+
सचमुच मुझे दण्ड दो कि हो जाऊँ<br>
+
पाताली अँधेरे की गुहाओं में विवरों में<br>
+
धुएँ के बाद्लों में<br>
+
बिलकुल मैं लापता!!<br>
+
लापता कि वहाँ भी तो तुम्हारा ही सहारा है!!<br>
+
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है<br>
+
या मेरा जो होता-सा लगता है, होता सा संभव है<br>
+
सभी वह तुम्हारे ही कारण के कार्यों का घेरा है, कार्यों का वैभव है<br>
+
अब तक तो ज़िन्दगी में जो कुछ था, जो कुछ है<br>
+
सहर्ष स्वीकारा है<br>
+
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है<br>
+
वह तुम्हें प्यारा है ।<br><br>
+

11:53, 26 अप्रैल 2012 के समय का अवतरण

ज़िन्दगी में जो कुछ है, जो भी है
सहर्ष स्वीकारा है;
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है।
गरबीली ग़रीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब
यह विचार-वैभव सब
दृढ़्ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब
मौलिक है, मौलिक है
इसलिए के पल-पल में
जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है--
संवेदन तुम्हारा है !!

जाने क्या रिश्ता है,जाने क्या नाता है
जितना भी उँड़ेलता हूँ,भर भर फिर आता है
दिल में क्या झरना है?
मीठे पानी का सोता है
भीतर वह, ऊपर तुम
मुसकाता चाँद ज्यों धरती पर रात-भर
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है!

सचमुच मुझे दण्ड दो कि भूलूँ मैं भूलूँ मैं
तुम्हें भूल जाने की
दक्षिण ध्रुवी अंधकार-अमावस्या
शरीर पर,चेहरे पर, अंतर में पा लूँ मैं
झेलूँ मै, उसी में नहा लूँ मैं
इसलिए कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित
रहने का रमणीय यह उजेला अब
सहा नहीं जाता है।
नहीं सहा जाता है।
ममता के बादल की मँडराती कोमलता--
भीतर पिराती है
कमज़ोर और अक्षम अब हो गयी है आत्मा यह
छटपटाती छाती को भवितव्यता डराती है
बहलाती सहलाती आत्मीयता बरदाश्त नही होती है !!!

सचमुच मुझे दण्ड दो कि हो जाऊँ
पाताली अँधेरे की गुहाओं में विवरों में
धुएँ के बाद्लों में
बिलकुल मैं लापता!!
लापता कि वहाँ भी तो तुम्हारा ही सहारा है!!
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
या मेरा जो होता-सा लगता है, होता सा संभव है
सभी वह तुम्हारे ही कारण के कार्यों का घेरा है, कार्यों का वैभव है
अब तक तो ज़िन्दगी में जो कुछ था, जो कुछ है
सहर्ष स्वीकारा है
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है ।