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"आग है, पानी है, मिट्टी है / कृष्ण बिहारी 'नूर'" के अवतरणों में अंतर
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मुझ को मुझ से जुदा कर के जो छुपा है मुझ में| | मुझ को मुझ से जुदा कर के जो छुपा है मुझ में| | ||
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वो बड़ी देर से कुछ ढूंढ रहा है मुझ में| | वो बड़ी देर से कुछ ढूंढ रहा है मुझ में| | ||
20:39, 8 मई 2012 के समय का अवतरण
आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है, मुझ में|
और फिर मानना पड़ता है के ख़ुदा है मुझ में|
अब तो ले-दे के वही शख़्स बचा है मुझ में,
मुझ को मुझ से जुदा कर के जो छुपा है मुझ में|
मेरा ये हाल उभरती हुई तमन्ना जैसे,
वो बड़ी देर से कुछ ढूंढ रहा है मुझ में|
जितने मौसम हैं सब जैसे कहीं मिल जायें,
इन दिनों कैसे बताऊँ जो फ़ज़ा है मुझ में|
आईना ये तो बताता है के मैं क्या हूँ लेकिन,
आईना इस पे है ख़मोश के क्या है मुझ में|
अब तो बस जान ही देने की है बारी ऐ "नूर",
मैं कहाँ तक करूँ साबित के वफ़ा है मुझ में|