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सूरदास ठगि रही ग्वालिनी, मन हरि लियौ अँजोरि ॥<br><br> | सूरदास ठगि रही ग्वालिनी, मन हरि लियौ अँजोरि ॥<br><br> | ||
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09:57, 28 सितम्बर 2007 का अवतरण
राग गौरी
सखा सहित गए माखन-चोरी ।
देख्यौ स्याम गवाच्छ-पंथ ह्वै, मथति एक दधि भोरी ॥
हेरि मथानी धरी माट तैं, माखन हो उतरात ।
आपुन गई कमोरी माँगन, हरि पाई ह्याँ घात ॥
पैठे सखनि सहित घर सूनैं, दधि-माखन सब खाए ।
छूछी छाँड़ि मटुकिया दधि की, हँसि सब बाहिर आए ॥
आइ गई कर लिये कमोरी, घर तैं निकसे ग्वाल ।
माखन कर, दधि मुख लपटानौ, देखि रही नँदलाल ॥
कहँ आए ब्रज-बालक सँग लै, माखन मुख लपटान्यौ ।
खेलत तैं उठि भज्यौ सखा यह, इहिं घर आइ छपान्यौ ॥
भुज गहि कान्ह एक बालक, निकसे ब्रजकी खोरि ।
सूरदास ठगि रही ग्वालिनी, मन हरि लियौ अँजोरि ॥
भावार्थ :-- (दूसरे दिन) सखाओं के साथ श्यामसुन्दर मक्खन-चोरी करने गये । वहाँ उन्होंने खिड़की की राह से (झाँककर) देखा कि एक भोली गोपी दही मथ रही है । उसने यह देखकर कि मक्खन ऊपर तैरने लगा है, मथानी को मटके से निकालकर रख दिया और स्वयं (मक्खन रखने की) मटकी माँगकर लेने गयी,श्यामसुन्दर को यहीं अवसर मिल गया। वे सखाओं के साथ सुनसान घर में घुस गये और सारा दही तथा मक्खन (सबने मिलकर) खा लिया और दही का मटका खाली छोड़कर हँसते हुए सब घर से बाहर निकल आये । इतने में वह (गोपी) हाथ में मटकी लिये आ गयी, उसने देखा कि) सब गोप-बालक उसके घर से निकल रहे हैं । हाथ में मक्खन लिये, मुख में दही लिपटाये श्री नन्द-नन्दन की छटा तो वह देखती ही रह गयी । (उसने पूछा)- `व्रज के बालकों को साथ लेकर (यहाँ) कहाँ आये हो? मुख में मक्खन (कैसे)लिपटा रखा है ?' (श्याम बोले)`मेरा यह सखा खेल में से उठकर भाग आया और यहाँ इस घर में आकर छिप गया था ।' (यह कहकर) कन्हाई ने (पास के) एक बालक का हाथ पकड़ लिया और व्रज की गलियों में चले गये । सूरदास जी कहते हैं कि वह गोपी तो ठगी-सी (मुग्ध) रह गयी, श्यामसुन्दर ने प्रकाश में (सबके सामने दिन-दहाड़े) उसके मन को हर लिया ।