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"आहत युगबोध / जगदीश व्योम" के अवतरणों में अंतर

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संज्ञा से आज सर्वनाम हुए हम
 
संज्ञा से आज सर्वनाम हुए हम
 
यूं ही बदनाम हुए हम !!
 
यूं ही बदनाम हुए हम !!
 
  
  
 
दुख नहीं तो सुख कैसा सुख नहीं तो दुख कैसा
 
दुख नहीं तो सुख कैसा सुख नहीं तो दुख कैसा
 
 
सुख है तो दुख भी है, दुख है तो सुख भी है
 
सुख है तो दुख भी है, दुख है तो सुख भी है
 
 
दुख सुख का अजब संग
 
दुख सुख का अजब संग
 
 
अजब रंग अजब ढंग
 
अजब रंग अजब ढंग
 
 
दुख तो है सुख की विजय का परचम
 
दुख तो है सुख की विजय का परचम
 
 
यूं ही बदनाम हुए हम !!
 
यूं ही बदनाम हुए हम !!
 
 
  
 
कविता के अक्षरों में व्याकुल मन की पीड़ा है
 
कविता के अक्षरों में व्याकुल मन की पीड़ा है
 
 
उनके लिए तो कवि-कर्म शब्द-क्रीडा है
 
उनके लिए तो कवि-कर्म शब्द-क्रीडा है
 
 
शोषित बन जीते हैं
 
शोषित बन जीते हैं
 
 
नित्य गरल पीते हैं
 
नित्य गरल पीते हैं
 
 
युग की विभीषिका के नाम हुए हम
 
युग की विभीषिका के नाम हुए हम
 
 
यूं ही बदनाम हुए हम !!
 
यूं ही बदनाम हुए हम !!
  

21:42, 21 मई 2012 का अवतरण



आहत युगबोध के जीवंत ये नियम
यूं ही बदनाम हुए हम !

मन की अनुगूंज ने वैधव्य वेष धार लिया
कांपती अंगुलियों ने स्वर का सिंगार किया
अवचेतन मन उदास
पाई है अबुझ प्यास
त्रासदी के नाम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम !!

अलसाई कामनाएं चढ़ने लगीं सीढ़ियाँ
टूटे अनुबंध, जिन्हें ढो रही थी पीढ़ियाँ
वैभव की लालसा ने
ललचाया मन-पांखी
संज्ञा से आज सर्वनाम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम !!


दुख नहीं तो सुख कैसा सुख नहीं तो दुख कैसा
सुख है तो दुख भी है, दुख है तो सुख भी है
दुख सुख का अजब संग
अजब रंग अजब ढंग
दुख तो है सुख की विजय का परचम
यूं ही बदनाम हुए हम !!

कविता के अक्षरों में व्याकुल मन की पीड़ा है
उनके लिए तो कवि-कर्म शब्द-क्रीडा है
शोषित बन जीते हैं
नित्य गरल पीते हैं
युग की विभीषिका के नाम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम !!



युग क्या पहचाने हम कलम फकीरों को

हम तो बदल देते युग की लकीरों को

धरती जब मांगती है विषपायी-कंठ तब

कभी शिव, मीरा, घनश्याम हुए हम

यूं ही बदनाम हुए हम !!



व्योम गुनगुनाया जब अंतस अकुलाया है

खड़ा हुआ कठघरे में खुद को भी पाया है

हम भी तो शोषक हैं

युग के उदघोषक हैं

घोड़ा हैं हम ही लगाम हुए हम

यूं ही बदनाम हुए हम !!