"आहत युगबोध / जगदीश व्योम" के अवतरणों में अंतर
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आहत युगबोध के जीवंत ये नियम | आहत युगबोध के जीवंत ये नियम | ||
− | + | यूँ ही बदनाम हुए हम ! | |
− | मन की | + | मन की अनुगूँज ने वैधव्य वेष धार लिया |
− | + | काँपती अँगुलियों ने स्वर का सिंगार किया | |
अवचेतन मन उदास | अवचेतन मन उदास | ||
पाई है अबुझ प्यास | पाई है अबुझ प्यास | ||
त्रासदी के नाम हुए हम | त्रासदी के नाम हुए हम | ||
− | + | यूँ ही बदनाम हुए हम !! | |
− | अलसाई | + | अलसाई कामनाएँ चढ़ने लगीं सीढ़ियाँ |
टूटे अनुबंध, जिन्हें ढो रही थी पीढ़ियाँ | टूटे अनुबंध, जिन्हें ढो रही थी पीढ़ियाँ | ||
वैभव की लालसा ने | वैभव की लालसा ने | ||
− | ललचाया मन- | + | ललचाया मन-पाँखी |
संज्ञा से आज सर्वनाम हुए हम | संज्ञा से आज सर्वनाम हुए हम | ||
− | + | यूँ ही बदनाम हुए हम !! | |
− | + | ||
दुख नहीं तो सुख कैसा सुख नहीं तो दुख कैसा | दुख नहीं तो सुख कैसा सुख नहीं तो दुख कैसा | ||
सुख है तो दुख भी है, दुख है तो सुख भी है | सुख है तो दुख भी है, दुख है तो सुख भी है | ||
− | दुख सुख का अजब संग | + | दुख-सुख का अजब संग |
− | अजब रंग अजब ढंग | + | अजब रंग, अजब ढंग |
दुख तो है सुख की विजय का परचम | दुख तो है सुख की विजय का परचम | ||
− | + | यूँ ही बदनाम हुए हम !! | |
कविता के अक्षरों में व्याकुल मन की पीड़ा है | कविता के अक्षरों में व्याकुल मन की पीड़ा है | ||
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नित्य गरल पीते हैं | नित्य गरल पीते हैं | ||
युग की विभीषिका के नाम हुए हम | युग की विभीषिका के नाम हुए हम | ||
− | + | यूँ ही बदनाम हुए हम !! | |
− | + | युग क्या पहचाने हम क़लम फकीरों को | |
− | युग क्या पहचाने हम | + | |
हम तो बदल देते युग की लकीरों को | हम तो बदल देते युग की लकीरों को | ||
− | धरती जब | + | धरती जब माँगती है विषपायी-कंठ तब |
कभी शिव, मीरा, घनश्याम हुए हम | कभी शिव, मीरा, घनश्याम हुए हम | ||
− | + | यूँ ही बदनाम हुए हम !! | |
− | + | ||
व्योम गुनगुनाया जब अंतस अकुलाया है | व्योम गुनगुनाया जब अंतस अकुलाया है | ||
− | खड़ा हुआ कठघरे में | + | खड़ा हुआ कठघरे में ख़ुद को भी पाया है |
हम भी तो शोषक हैं | हम भी तो शोषक हैं | ||
युग के उदघोषक हैं | युग के उदघोषक हैं | ||
घोड़ा हैं हम ही लगाम हुए हम | घोड़ा हैं हम ही लगाम हुए हम | ||
− | + | यूँ ही बदनाम हुए हम !! | |
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22:50, 22 मई 2012 के समय का अवतरण
आहत युगबोध के जीवंत ये नियम
यूँ ही बदनाम हुए हम !
मन की अनुगूँज ने वैधव्य वेष धार लिया
काँपती अँगुलियों ने स्वर का सिंगार किया
अवचेतन मन उदास
पाई है अबुझ प्यास
त्रासदी के नाम हुए हम
यूँ ही बदनाम हुए हम !!
अलसाई कामनाएँ चढ़ने लगीं सीढ़ियाँ
टूटे अनुबंध, जिन्हें ढो रही थी पीढ़ियाँ
वैभव की लालसा ने
ललचाया मन-पाँखी
संज्ञा से आज सर्वनाम हुए हम
यूँ ही बदनाम हुए हम !!
दुख नहीं तो सुख कैसा सुख नहीं तो दुख कैसा
सुख है तो दुख भी है, दुख है तो सुख भी है
दुख-सुख का अजब संग
अजब रंग, अजब ढंग
दुख तो है सुख की विजय का परचम
यूँ ही बदनाम हुए हम !!
कविता के अक्षरों में व्याकुल मन की पीड़ा है
उनके लिए तो कवि-कर्म शब्द-क्रीडा है
शोषित बन जीते हैं
नित्य गरल पीते हैं
युग की विभीषिका के नाम हुए हम
यूँ ही बदनाम हुए हम !!
युग क्या पहचाने हम क़लम फकीरों को
हम तो बदल देते युग की लकीरों को
धरती जब माँगती है विषपायी-कंठ तब
कभी शिव, मीरा, घनश्याम हुए हम
यूँ ही बदनाम हुए हम !!
व्योम गुनगुनाया जब अंतस अकुलाया है
खड़ा हुआ कठघरे में ख़ुद को भी पाया है
हम भी तो शोषक हैं
युग के उदघोषक हैं
घोड़ा हैं हम ही लगाम हुए हम
यूँ ही बदनाम हुए हम !!