भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अश्क़ इतने हमने पाले आँख में / ‘अना’ क़ासमी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='अना' क़ासमी |संग्रह=हवाओं के साज़ प...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
19:49, 1 जून 2012 के समय का अवतरण
अश्क इतने हमने पाले आँख में
पड़ गये हैं यार छाले आँख में
जागती आँखों को भी फुरसत नहीं
तुमने इतने ख़्वाब डाले आँख में
इस गली के बाद तारीकी है देख
कुछ बचा रखना उजाले आँख में
पत्थरों पर नींद भी आ जायेगी
बिस्तरों पर गुल बिछा ले आँख में
कुछ बिखरता टूटता जाता हूँ अब
कोई तो मुझको छुपा ले आँख में
बूढ़ी आँखों में कोई रहता नहीं
मकड़ियाँ बुनती हैं जाले आँख में