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|रचनाकार= राजुल मेहरोत्रा
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[[Category:लम्बी रचना]]
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सम्पूर्ण विश्व की सभी भाषाएँ बारह वर्गोँ मेँ विभक्त हैँ, जिनमेँ एक वर्ग का नाम ’भारोपीय कुल’ है, इसके दो समूह हैँ - केन्टुम और शतम। शतम समूह मे ईरानी और आर्यवर्त्ती भाषाएँ मुख्य है। आर्यवर्त्ती भाषाओं मेँ उत्तर भारत की अनेक भाषाएँ हैँ, जिनमेँ हिन्दी एक प्रधान भाषा है।
१९०० ई. के बाद द्विवेदी काल तथा [[छायावाद]] काल मेँ अनेक कारणोँ से तत्सम शब्दोँ का प्रयोग बढ़ना प्रारम्भ हो गया। [[जयशंकर प्रसाद|प्रसाद]], [[सुमित्रानंदन पंत|पंत]] और [[महादेवी वर्मा]] का पूरा साहित्य इस दृष्टि से दर्शनीय है। इसके बाद प्रगतिवादी आंदोलन के कारण तद्भव शब्दोँ के प्रयोग पुन: वृद्धि हुई। १९४७ ई. तक यही स्थिति रही। इसके बाद अनेक पुराने शब्द नये अर्थोँ मेँ प्रचलित हो गये जैसे ’सदन’ लोकसभा-राज्यसभा दोनो के लिये प्रयुक्त हो रहा है। क्षणिका, फिल्माना, घुसपैठिया जैसे बहुत से नये शब्दोँ का हिन्दी मेँ जन्म हो गया। साहित्य मेँ नाटक, उपन्यास, कहानी और कविता की भाषा बोलचाल के बहुत निकट है; उसमेँ अरबी, फारसी तथा अँगेजी के जन प्रचलित शब्दों का प्रयोग अत्यधिक हो रहा है किन्तु आलोचना की भाषा अब भी एक सीमा तक तत्सम शब्दों से लदी हुई है। हिन्दी को विज्ञान, वाणिज्य, विधि आदि की भाषा बनने के लिये पारिभाषिक शब्दोँ की बहुत आवश्यकता पड़ी है, इसकी पूर्ति मुख्यत: अँगेजी तथा सँस्कृत भाषा से की गई है। ज्योँ-ज्योँ सँचार माध्यमोँ का विकास होता जा रहा है हिन्दी शब्द-भाण्डार अनेक प्रभावों को ग्रहण करते हुए, नये शब्दोँ से समृद्ध होते हुए दिनोदिन अधिक व्यापक होता जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप हिन्दी अपनी अभिव्यँजना मेँ अधिक सटीक, निश्चित, गहरी तथा समर्थ होती जा रही है।
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