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| |रचनाकार=तुलसीदास | | |रचनाकार=तुलसीदास |
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| + | |संग्रह=विनयावली / तुलसीदास |
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− | [[Category:लम्बी रचना]] | + | * [[विनयावली / तुलसीदास / पद 71 से 80 तक / पृष्ठ 1]] |
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| + | * [[विनयावली / तुलसीदास / पद 71 से 80 तक / पृष्ठ 5]] |
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− | <poem>
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− | '''पद 71 से 80 तक'''
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− | (71)
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− | ऐसेहू साहब की सेवा सों होत चोरू रे।
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− | अपनी न बूझ, न कहै को राँडरोरू रे।।
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− | मुनि-मन-अगम, सुगत माइ-बापु सों।
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− | कृपासिंधु, सहज सखा, सनेही आपु सों।।
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− | लोक-बेद-बिदित बड़ो न रघुनाथ सों ।
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− | सब दिन सब देस, सबहिकें साथ सों।।
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− | स्वामी सरबग्य सों चलै न चोरी चारकी।
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− | प्रीति पहिचानि यह रीति दरबारकी।।
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− | काय न कलेस-लेस, लेत मान मनकी।
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− | सुमिरे सकुचि रूचि जोगवत जनकी ।
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− | रीझे बस होत, खीजे देत निज धाम रे।
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− | फलत सकल फल कामतरू नाम रे।।
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− | बेंचे खोटो दाम न मिलै, न राखे काम रे।
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− | सोऊ तुलसी निवाज्यो राजराम रे।।
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− | (72)
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− | म्ेारो भलो कियो राम आपनी भलाई।
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− | हौं तो साईं-द्रोही पै सेवक-हित साईं।।
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− | रामसों बडो है कौन, मोसों कौन छोटेा।
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− | राम सेा खरो हैं कौन, मोसो कौन खोटो।।
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− | लोक कहै रामको गुलाम हौं कहावौं।
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− | एतो बडो अपराध भौ न मन बावौं।।
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− | पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी ज्यांे नीचो।
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− | बोरत न बारि ताहि जानि आपु सींचो।।
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− | (74)
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− | जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव,
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− | जागि त्यागि मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे।
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− | करि बिचार, तजि बिकार, भजु उदार रामचंद्र,
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− | भद्रसिंधु दीनबंधु, बेद बदत रे।।
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− | मोहमय कुहू-निशा बिसाल काल बिपुल सोयो,
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− | खोयो से अनूप रूप सुपन जू परे।
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− | अब प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश,
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− | बासना, सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे।।
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− | भागे मद-मान चोर जानि जातुधान,
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− | काम-क्रेाध-लोभ-छोभ-निकर अपडरे।
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− | देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप,
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− | ताप त्रिबिधि प्रेम-आप दूर ही करे।।
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− | श्रवन सुनि गँभीर, जागे अति धीर बीर,
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− | बर बिराग-तोष सकल संत आदरे।
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− | तुलसिदास प्रभु कृपालु, निरखि जीव जन बिहालु,
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− | भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे।।
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− | (76)
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− | खेाटेा खरो रावरो हौं, रावरी सौं, रावरेसों झूठ क्यों कहौंगो,
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− | जानो सब ही के मनकी।
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− | करम-बचन-हिये, कहौं न कपट किये, ऐसी हठ जैसी गाँठि,
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− | पानी परे सनकी।।
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− | दूसरो , भरोसो नहिं बासना उपासनाकी, बासव, बिरंचि,
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− | सुर-नर-मुनिगनकी।।
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− | स्वारथके साथी मेरे, हाथी स्वान लेवा देई, काहू तो न पीर,
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− | रघुबीर!दीन जनकी।।
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− | साँप-सभा साबर लबार भये देव दिब्य, दुसह साँसति कीजै,
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− | आगे ही या तनकी।
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− | साँचे परौं, पाऊँ पान, पंचमें पन प्रमान,तुलसी चातक आस
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− | राम स्यामघन की।।
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− | (78)
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− | देव-
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− | दीनको दयालु, दानि दूसरो न कोऊ।
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− | जाहि दीनता कहैां हौं देखौं दीन सोऊ।।
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− | सुर, नर, मुनि, असुर, नाग, साहिब तौ घनेरे।
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− | पै तौ लौं जौ लौं रावरे न नेकु नयन फेरे।।
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− | त्रिभुवन, तिहुँ काल बिदित, बेद बदति चारी।
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− | आदि-अंत-मध्य राम! सहबी तिहारी।।
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− | तोहि माँगि माँगनो न माँगनो कहायो।
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− | सुनि सुभाव-सील-सुजसु जाचन जन आयो।।
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− | पाहन-पसु बिटप- बिहँग अपने करि लीन्हे।
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− | महाराज दसरथके! श्रंक राय कीन्हें।।
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− | तू गरीबको निवाज, हौं गरीब तेरो।
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− | बारक कहिये कृपालु! त्ुलसिदास मेरो।।
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