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"विनयावली / तुलसीदास / पृष्ठ 8" के अवतरणों में अंतर

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<poem>
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'''पद 71 से 80 तक'''
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(71)
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ऐसेहू साहब की सेवा सों होत चोरू रे।
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अपनी न बूझ, न कहै को राँडरोरू रे।।
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मुनि-मन-अगम, सुगत माइ-बापु सों।
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कृपासिंधु, सहज सखा, सनेही आपु सों।।
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लोक-बेद-बिदित बड़ो न रघुनाथ सों ।
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सब दिन सब देस, सबहिकें साथ सों।।
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स्वामी सरबग्य सों चलै न चोरी चारकी।
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प्रीति पहिचानि यह रीति दरबारकी।।
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काय न कलेस-लेस, लेत मान मनकी।
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सुमिरे सकुचि रूचि जोगवत जनकी ।
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रीझे बस होत, खीजे देत निज धाम रे।
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फलत सकल फल कामतरू नाम रे।।
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बेंचे खोटो दाम न मिलै, न राखे काम रे।
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सोऊ तुलसी निवाज्यो राजराम रे।।
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(72)
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म्ेारो भलो कियो राम आपनी भलाई।
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हौं तो साईं-द्रोही पै सेवक-हित साईं।।
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रामसों बडो है कौन, मोसों कौन छोटेा।
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राम सेा खरो हैं कौन, मोसो कौन खोटो।।
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लोक कहै रामको गुलाम हौं  कहावौं।
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एतो बडो अपराध भौ न मन बावौं।।
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पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी ज्यांे नीचो।
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बोरत न बारि ताहि जानि आपु सींचो।।
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(74)
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जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव,
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जागि त्यागि मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे।
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करि बिचार, तजि बिकार, भजु उदार रामचंद्र,
+
भद्रसिंधु दीनबंधु, बेद बदत रे।।
+
मोहमय कुहू-निशा बिसाल काल बिपुल सोयो,
+
खोयो से अनूप रूप सुपन जू परे।
+
अब  प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश,
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बासना, सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे।।
+
भागे मद-मान चोर जानि जातुधान,
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काम-क्रेाध-लोभ-छोभ-निकर अपडरे।
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देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप,
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ताप त्रिबिधि प्रेम-आप दूर ही करे।।
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श्रवन सुनि गँभीर, जागे अति धीर बीर,
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बर बिराग-तोष सकल संत आदरे।
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तुलसिदास प्रभु कृपालु, निरखि जीव जन बिहालु,
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भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे।।
+
 
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(76)
+
 
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खेाटेा खरो रावरो हौं, रावरी सौं, रावरेसों झूठ क्यों कहौंगो,
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जानो सब ही के मनकी।
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करम-बचन-हिये, कहौं न कपट किये, ऐसी हठ जैसी गाँठि,
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पानी परे सनकी।।
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दूसरो , भरोसो नहिं बासना उपासनाकी, बासव, बिरंचि,
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सुर-नर-मुनिगनकी।।
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स्वारथके साथी मेरे, हाथी स्वान लेवा देई, काहू तो न पीर,
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रघुबीर!दीन जनकी।।
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साँप-सभा साबर लबार भये देव दिब्य, दुसह साँसति कीजै,
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आगे ही या तनकी।
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साँचे परौं, पाऊँ पान, पंचमें पन प्रमान,तुलसी चातक आस
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राम स्यामघन की।।
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(78)
+
 
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देव-
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दीनको दयालु, दानि दूसरो न कोऊ।
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जाहि दीनता कहैां हौं देखौं दीन सोऊ।।
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सुर, नर, मुनि, असुर, नाग, साहिब तौ घनेरे।
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पै तौ लौं जौ लौं रावरे न नेकु नयन फेरे।।
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त्रिभुवन, तिहुँ काल बिदित, बेद बदति चारी।
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आदि-अंत-मध्य राम! सहबी तिहारी।।
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तोहि माँगि माँगनो न माँगनो कहायो।
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सुनि सुभाव-सील-सुजसु जाचन जन आयो।।
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पाहन-पसु बिटप- बिहँग अपने करि लीन्हे।
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महाराज दसरथके! श्रंक राय कीन्हें।।
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तू गरीबको निवाज, हौं गरीब तेरो।
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बारक कहिये कृपालु! त्ुलसिदास मेरो।।
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</poem>
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20:24, 16 जून 2012 के समय का अवतरण