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| |रचनाकार=तुलसीदास | | |रचनाकार=तुलसीदास |
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| + | |संग्रह=विनयावली / तुलसीदास |
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− | <poem>
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− | '''पद 81 से 90 तक'''
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− | (83)
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− | कछु ह्वै न आई गयो जनम जाय।
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− | अति दुरलभ तनु पाइ कपट तजि भजे राम मन बचन-काय।।
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− | लरिकाईं बीती अचेत चित, चंचलता चौगुने चाय।
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− | जोबन-जुर जुबती कुपथ्य करि, भयो त्रिदोष भरि मदन-बाय।।
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− | मध्य बसस धन हेेतु गँवाई, कृषी बनिज नाना उपाय।
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− | राम-बिमुख सुख लह्यो न सपनेहुँ, निसिबासर तयौ तिहूँ ताय।।
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− | सेये नहिं सीतापति-सेवक, साधु सुमति भलि भगति भाय।
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− | सुने न पुलकि तनु, कहे न मुदित मन किये जे चरित रघुबंसराय।।
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− | अब सोचत मनि बिनु भुअंग ज्यों, बिकल अंग दले जरा धाय।
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− | सिर धुनि-धुनि पछितात मींजि कर कोउ न मीत हित दुसह दाय।।
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− | जिन्ह लगि निज परलोक बिगार्यो, ते लजात होत ठाढ़े ठाँय।
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− | तुलसी अजहुँ सुमिरि रघुनाथहिं, तर्यौ गयँद जाके एक नाँय।।
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− | (85)
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− | मन! माधवको नेकु निहारहि।
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− | सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यों, छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहि।।
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− | सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदारहि।
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− | रंजन संत, अखिल अघ-गंजन , भंजन बिषय-बिकारहि।।
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− | जो बिनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयेा चहै भव-पारहि।
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− | तौ जानि तुलसिदास निसि-बासर हरि-पद-कमल बिसारहि।।
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− | (86)
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− | इहै कहृयो सुत! ब्ेाद चहूूँ ।
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− | श्रीरघुवीर-चरन-चिंतन तजि नाहिन ठौर कहूँ।।
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− | जाके चरन बिरंचि सेइ सिधि पाई संकरहूँ।
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− | सुक-सनकादि मुकुत बिचरत तुउ भजन करत अजहूँ।।
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− | जद्यपि परम चपल श्री संतत, थिर न रहति कतहूँ।
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− | हरि -पद-पंकज पाइ अचल भइ, करम-बचन-मनहूँ।।
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− | करूनासिंधु, भगत-चिंतामनि, सोभा संवतहूँ।।
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− | और सकल सुर, असुर-ईस सब खाये उरग छहूँ।।
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− | सुरूचि कह्यो सेाइ सत्य तात अति परूष बचन जबहूँ।।
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− | तुलसिदास रघुनाथ-बिमुख नहिं मिटइ बिपति कबहूँ।।
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− | दीन
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− | </poem>
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