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"आत्‍मपरिचय / हरिवंशराय बच्‍चन" के अवतरणों में अंतर

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मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
 
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मैं मस्‍ती का संदेश लिए फिरता हूँ!
 
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दिन जल्‍दी-जल्‍दी ढलता है!
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हो जाए न पथ में रात कहीं,
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मंजिल भी तो है दूर नहीं-
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यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्‍दी-जल्‍दी चलता है!
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दिन जल्‍दी-जल्‍दी ढलता है!
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बच्‍चे प्रत्‍याशा में होंगे,
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नीड़ों से झाँक रहे होंगे-
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यह ध्‍यान परों में चिडि़या के भरते कितनी चंचलता है!
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दिन जल्‍दी-जल्‍दी ढलता है!
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मुझको मिलने को कौन विकल?
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मैं होऊँ किसके हित चंचल?
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यह प्रश्‍न शिथिल करता है पद को, भरता उर में विह्वलता है!
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दिन जल्‍दी-जल्‍दी ढलता है!
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07:49, 19 जून 2012 के समय का अवतरण

मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,

फिर भी जीवन में प्‍यार लिए फिरता हूँ;

कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर

मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!


मैं स्‍नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,

मैं कभी न जग का ध्‍यान किया करता हूँ,

जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,

मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!


मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,

मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;

है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता

मैं स्‍वप्‍नों का संसार लिए फिरता हूँ!


मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,

सुख-दुख दोनों में मग्‍न रहा करता हूँ;

जग भ्‍ाव-सागर तरने को नाव बनाए,

मैं भव मौजों पर मस्‍त बहा करता हूँ!


मैं यौवन का उन्‍माद लिए फिरता हूँ,

उन्‍मादों में अवसाद लए फिरता हूँ,

जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,

मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!


कर यत्‍न मिटे सब, सत्‍य किसी ने जाना?

नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!

फिर मूढ़ न क्‍या जग, जो इस पर भी सीखे?

मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना!


मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,

मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;

जग जिस पृथ्‍वी पर जोड़ा करता वैभव,

मैं प्रति पग से उस पृथ्‍वी को ठुकराता!


मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,

शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,

हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,

मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ!


मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,

मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;

क्‍यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,

मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!


मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,

मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;

जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,

मैं मस्‍ती का संदेश लिए फिरता हूँ!