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{{KKRachna
|रचनाकार=केदारनाथ अग्रवालमुकुटधर पांडेय
}}
{{KKAnthologyVarsha}}{{KKCatKavita}}<poem>बर्षावर्षा-बहार सब के, मन को लुभा रही हैनभ में छटा अनूठी, घनघोर छा रही है।है । 
बिजली चमक रही है, बादल गरज रहे हैं
पानी बरस रहा है, झरने भी ये बहे हैं।हैं । चलती हवा है ठंडी, हिलती हैं डालियां डालियाँ सबबागों में गीत सुंदर, गाती हैं मालिनें अब।अब । 
तालों में जीव चलचर, अति हैं प्रसन्न होते
फिरते लखो पपीहे, हैं ग्रीष्म ताप खोते।खोते । 
करते हैं नृत्य वन में, देखो ये मोर सारे
मेंढक लुभा रहे हैं, गाकर सुगीत प्यारे।प्यारे । खिलते गुलाब, कैसा , सौरभ उडा उड़ रहा हैबागों बाग़ों में खूब ख़ूब सुख से आमोद छा रहा है।है । चलते हैं हंस कहीं पर, बांधे बाँधे कतार सुंदरगाते हैं गीत कैसे, लेते किसान मनहर।मनहर । इस भांति भाँति है, अनोखी वर्षा-बहार भू परसारे जगत की शोभा, निर्भर है इसके ऊपर।ऊपर ।
</poem>
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