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अंजना बख्शी की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए भारत की प्रसिद्ध हिन्दी कवयित्री [[अनामिका ]] कहती हैं-"अंजना बख्शी सपनों और स्मृतियों की एक छोटी-सी गठरी के साथ जेएनयू आई थीं। अब इस गठरी में संसार बँधा है- अपनी समस्त विडम्बनाओं की लहालोट के साथ! बहुत सारे श्रमसिद्ध चरित्र इन्होंने उकेरे हैं- आठ वर्षीय यासमीन/बुन रही है सूत/जिसके रूँएँ के मीठे जहर का स्वाद/नाक और मुँह के रास्ते उसके शरीर में/घर कर रहा है......अब्बा का अस्थमा, अम्मी की तरह...... एक्सरे।
आठ वर्षीय यासमीनबुन रही है सूतजिसके रूँएँ के मीठे जहर का स्वादनाक और मुँह के रास्ते उसके शरीर मेंघर कर रहा है......अब्बा का अस्थमा, अम्मी की तरह...... एक्सरे। दीनू मोची, बस में गाती गुड़िया, भेलू की स्त्री, केले बेचती लड़की, बल्ली बाई, जिस्म बेचती रामकली, अख़बार बेचता बच्चा, भुट्टा बेचती लड़की, कचरा बीनता अधनंगा बच्चा, ईंट ढोती औरत......श्रमदोहन वाले इस बाज़ार के पार जो अंतरंग-सा कोना है, उसमें 'मुनिया' का बचपन अपनी माँ और बाबा से कई जटिल प्रश्न पूछता नजर आता है- 'मेरे हाथों से चपेटे/छुड़ाकर तुम्हें क्या मिला माँ/रोज जला करते मेरे हाथ/रोटियाँ सेंकते.....सब्जी में नमक भी/हो जाता था ज्यादा/तब मिर्च-सी/लाल हो जातीं तुम्हारी आँखें'
वंचितों के प्रति उनकी अगाध सहानुभूति, सहज भाषा और संवेदनशील लोकसंदर्भ इनकी काव्य-यात्रा के पाथेय बनेंगे, यही उम्मीद है।"
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