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"दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।  
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दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।
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तब ललाट की कुंचित अलकों-
 
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तेरे ढरकीले आँचल को,  
 
तेरे ढरकीले आँचल को,  
 
तेरे पावन-चरण कमल को,  
 
तेरे पावन-चरण कमल को,  
 
छू कर धन्य-भाग अपने को लोग मानते हैं सब के सब।
 
छू कर धन्य-भाग अपने को लोग मानते हैं सब के सब।
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मैं तो केवल तेरे पथ से  
 
मैं तो केवल तेरे पथ से  
 
उड़ती रज की ढेरी भर के,  
 
उड़ती रज की ढेरी भर के,  
 
चूम-चूम कर संचय कर के  
 
चूम-चूम कर संचय कर के  
 
रख भर लेता हूँ मरकत-सा मैं अन्तर के कोषों में तब।  
 
रख भर लेता हूँ मरकत-सा मैं अन्तर के कोषों में तब।  
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पागल झंझा के प्रहार सा,  
 
पागल झंझा के प्रहार सा,  
 
सान्ध्य-रश्मियों के विहार-सा,  
 
सान्ध्य-रश्मियों के विहार-सा,  
 
सब कुछ ही यह चला जाएगा-
 
सब कुछ ही यह चला जाएगा-
 
इसी धूलि में अन्तिम आश्रय मर कर भी मैं पाऊँगा दब !
 
इसी धूलि में अन्तिम आश्रय मर कर भी मैं पाऊँगा दब !
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दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।
 
दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।
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'''दिल्ली जेल, दिसम्बर, 1931'''
 
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20:46, 19 जुलाई 2012 के समय का अवतरण

दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।
 
तब ललाट की कुंचित अलकों-
तेरे ढरकीले आँचल को,
तेरे पावन-चरण कमल को,
छू कर धन्य-भाग अपने को लोग मानते हैं सब के सब।

मैं तो केवल तेरे पथ से
उड़ती रज की ढेरी भर के,
चूम-चूम कर संचय कर के
रख भर लेता हूँ मरकत-सा मैं अन्तर के कोषों में तब।

पागल झंझा के प्रहार सा,
सान्ध्य-रश्मियों के विहार-सा,
सब कुछ ही यह चला जाएगा-
इसी धूलि में अन्तिम आश्रय मर कर भी मैं पाऊँगा दब !

दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।

दिल्ली जेल, दिसम्बर, 1931