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"दीपावली का एक दीप / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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20:55, 19 जुलाई 2012 के समय का अवतरण
दीपक हूँ, मस्तक पर मेरे अग्निशिखा है नाच रही-
यही सोच समझा था शायद आदर मेरा करें सभी।
किन्तु जल गया प्राण-सूत्र जब स्नेह नि:शेष हुआ-
बुझी ज्योति मेरे जीवन की शव से उठने लगा धुआँ
नहीं किसी के हृदय-पटल पर थी कृतज्ञता की रेखा
नहीं किसी की आँखों में आँसू तक भी मैं ने देखा!
मुझे विजित लख कर भी दर्शक नहीं मौन हो रहते हैं;
तिरस्कार, विद्रूप-भरे वे वचन मुझे आ कहते हैं :
'बना रखी थी हमने दीपों की सुन्दर ज्योतिर्माला-
रे कृतघ्न! तूने बुझ कर क्यों उसको खंडित कर डाला?'
अमृतसर जेल, अप्रैल, 1932