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ताजमहल की छाया में / अज्ञेय

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कवि: [[अज्ञेय]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category: |रचनाकार=अज्ञेय]]~*~*~*~*~*~*~*~ |संग्रह=इत्यलम् / अज्ञेय}}{{KKAnthologyLove}}{{KKCatKavita‎}}<poem>मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है मैं कविता कर पाऊँ,या कूँची में रंगों ही का स्वर्ण-वितान बनाऊँ ।साधन इतने नहीं कि पत्थर के प्रासाद खड़े कर-तेरा, अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊँ।
पर वह क्या कम कवि है जो कविता में तन्मय होवे
या रंगों की रंगीनी में कटु जग-जीवन खोवे ?
हो अत्यन्त निमग्न, एकरस, प्रणय देख औरों का-
औरों के ही चरण-चिह्न पावन आँसू से धोवे?
मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है मैं कविता कर पाऊँहम-तुम आज खड़े हैं जो कन्धे से कन्धा मिलाये,<br>या कूँची में रंगों ही का स्वर्ण-वितान बनाऊँ ।<br>देख रहे हैं दीर्घ युगों से अथक पाँव फैलायेसाधन इतनें नहीं कि पत्थर के प्रासाद खड़े करव्याकुल आत्म-<br>निवेदन-सा यह दिव्य कल्पना-पक्षी:तेरा, अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊँ।<br><br>क्यों न हमारा ह्र्दय आज गौरव से उमड़ा आये!
मैं निर्धन हूँ,साधनहीन ; न तुम ही हो महारानी,पर वह साधन क्या कम कवि है जो कविता में तन्मय होवे<br>या रंगों की रंगीनी में कटु जग-जीवन खोवे ?<br>व्यक्ति साधना ही से होता दानी!हो अत्यन्त निमग्न, एकरस, प्रणय जिस क्षण हम यह देख औरों सामनें स्मारक अमर प्रणय का-<br>औरों के ही चरण-चिह्न पावन आँसू से धोवे?<br><br>प्लावित हुए, वही क्षण तो है अपनी अमर कहानी !
हम-तुम आज खड़े हैं जो कन्धे से कन्धा मिलाये,<br>देख रहे हैं दीर्घ युगों से अथक पाँव फैलाये<br>व्याकुल आत्म-निवेदन-सा यह दिव्य कल्पना-पक्षी:<br>क्यों न हमारा ह्र्दय आज गौरव से उमड़ा आये!<br><br> मैं निर्धन हूँ,साधनहीन ; न तुम ही हो महारानी,<br>पर साधन क्या? व्यक्ति साधना ही से होता दानी!<br>जिस क्षण हम यह देख सामनें स्मारक अमर प्रणय का<br>प्लावित हुए, वही क्षण तो है अपनी अमर कहानी !<br><br> रचनाकाल/स्थल : '''२० दिसम्बर १९३५, आगरा''' <br><br/poem>
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