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(श्रद्धापूर्वक गुरु एवं हितू स्वर्गीय सत्य प्रकाश मिश्र जी के लिए,जो इलाहाबाद की रौनक थे, शान थे)
'''1.
(श्रद्धापूर्वक गुरु एवं हितू स्वर्गीय सत्य प्रकाश मिश्र जी के लिए,जो इलाहाबाद की रौनक थे, शान थे)<br><br>
'''1.<br><br>
इलाहाबाद की बांध रोड पर<br>
भीड़ से घिरा खड़ा था<br>
वह दिशाहारा<br>
हर तरफ़ कुहरा घना था<br>
जाड़े की रात थी<br>
नीचे था पारा ।<br>
तन पर तहमद के अलावा<br>
कुछ नहीं था शेष<br>
जटा-जूट उलझी दाढ़ी<br>
चमरौधा पहने वह<br>
फिर रहा था मारा-मारा ।<br><br>
कई दिनों से भूखा था वह<br>
अपनों का दुत्कारा<br>
भूल गया था वह कैसे<br>
जाता है पुकारा ।<br><br>
वह चुप था नीची किए आँख<br>
सुनता था न समझता था,<br>
छाई थी चंहुदिस सघन रात ।<br><br>
कुछ ने पहचाना उसको<br>
कुछ ने कहा है मतवाला<br>
पर कोलाहाल में गूँज रहा था बस<br>
निराला...निराला...निराला ।<br><br>
'''2.<br><br>
वह निराला नहीं था तो<br>
निराला जैसा क्यों<br>
दिख रहा था<br>
वह निराला नहीं था तो<br>
कुहरे पर क्यों<br>
लिख रहा था ।<br><br>
'''3.<br><br>
धीरे-धीरे छँटी भीड़<br>
अब वह था और दिशाएँ थीं<br>
कुछ बांध रोड पर गाएँ थीं<br>
जो बहिला थीं<br>
काँजी हाउस की ओर<br>
उन्हें हाँका जा चुका था<br>
वे हड्डी थीं और चमड़ा थीं<br>
उनकी रंभाहट से बिध कर<br>
खड़ा रहा वह बेघर<br>
फिर धीरे-धीरे चढ़ी रात<br>
वह कृष्ण पाख की विकट रात<br>
था दूर-दूर तक अंधियारा<br>
अशरण था वह दुत्कारा ।<br><br>
'''4.<br><br>
जाने को जा सकता था घर<br>
पर मन में बैठ गया था डर<br>
लोटे से मारेगा बेटा<br>
बहू कहेगी दुर...दुर...दुर... ।<br>
सुनने सहने की शक्ति नहीं<br>
आँखें झरती थीं झर-झर<br>
बूढे़ पीपल के तरु तर<br>
चुपचाप सो गया वह थक कर ।<br><br>
'''5.<br><br>
रात गए जागा वह बूढ़ा<br>
खिसका अपनी जगह से<br>
जैसे खिसकते हैं तारे<br>
बिना सहारे<br>
और गंगा के कचार की तरफ़ बढ़ गया<br>
फिर वहाँ गायों को झुंड नहीं था<br>
रंभाहट नहीं थी<br>
पर लगता था वह घिरा है<br>
देखने वालों की भीड़ से<br>
गायों की रंभाहट चादर बन कर<br>
छाई है उस निराला जैसे आदमी पर<br><br>
कैसा-कैसा हो आया मन<br>
मैं वहाँ क्या कर रहा था<br>
जब वो आदमी मर रहा था<br>
मैं सच में वहाँ था या<br>
या कोई सपना निथर रहा था<br>
अगर यह सपना नहीं था तो<br>
वह आदमी कौन था जो<br>
अपना था<br>
अंधकार में वह क्यों रोया था<br>
उसने सचमुच में कुछ खोया था ।<br><br>
'''6.<br><br>
कई दिन हुए घर से निकले<br>
पर कोई उसे ढूंढ़ने नहीं निकला<br>
न ही पूछने आया कोई दारागंज से<br>
न ही कोई आया गढ़ाकोला से<br>
महिसादल से<br>
न निकला कुल्ली भाट न बिल्लेसुर बकरिहा<br>
न चतुरी चमार<br>
सरोज तो आ सकती थी खोजते हुए<br>
पर भूल रहा हूँ<br>
वह तो नहीं रही थी पहले ही<br>
उसका तर्पण तो किया था बूढ़े ने ही<br>
अब कोई नहीं जो ले खोज ख़बर<br>
अब जाए कहाँ क्या करे काम<br>
किसको बतलाए नाम-धाम<br>
उससे किसी को स्नेह नहीं<br>
वह पानी वाला मेह नहीं<br>
उसका कोई इतिहास नहीं<br>
कुछ छोटे-छोटे प्रश्नों के<br>
उत्तर की कोई आस नहीं<br>
घ्हटना यह कोई ख़ास नहीं<br>
आए दिन होता है लाला<br>
कुछ सोचो मत अब जाओ घर<br>
गंगा की रेती पर वृद्ध प्रवर<br>
मरता है तो मरने दो<br>
बस अपनी नौका को तरने दो ।<br><br>
'''7.<br><br>
उसकी गाँठ में कुछ नहीं था<br>
वह किसी को नहीं दे सकता था कुछ भी<br>
आशीष और शाप के सिवा<br>
वह बुझ गया था<br>
छिन गई थी उसकी चमक-दमक<br>
कि दुनिया में<br><br>
वह आपकी तरह था<br>
एक कटी बाँह को सहलाती<br>
दूसरी बाँह की तरह था<br>
वह ऎसे था जैसे<br>
धरती के बनने से जागा हो<br>
वह ऎसे था जैसे<br>
कपड़े के थान से नुच गया धागा हो ।<br><br>
'''8<br><br>
पुलिन पर वह आज़ाद था<br>
तारों की तरह<br>
गायों की तरह<br>
उसे हाँकने वाला कौन था<br>
उस अंधेरे गंगा के कछार में<br>
उसकी खोज में झांकने वाला कौन था ।<br><br>
'''9.<br><br>
मैं उस बेघर को ला सकता था घर<br>
चलो न लाता तो<br>
उसके घावों को सहला तो सकता था<br>
पूछ तो सकता था कि वह रोता क्यों है<br>
वह अपने को अंधकार में खोता क्यों है<br>
पर मैं भी दर्शक था<br>
देखता रह<br>
उस बूढ़े को<br>
रोते हुए<br>
देखता रहा उसे अंधकार में खोते हुए ।<br><br>
'''10.<br><br>
धरती का यह कौन-सा कोना है<br>
जहाँ बूढे़ रोते हैं<br>
घरों से निकल कर<br>
रोती हैं औरतें चूल्हों में सुलग कर<br>
वह कौन-सा नगर कौन-सा शहर है<br>
जहाँ लोगों को चुप कराने का<br>
चलन नहीं रह बाक़ी<br>
रातों में जाग कर रोती है<br>
अब भी<br>
प्रेमचन्द की बूढ़ी काकी<br>
जहाँ रोता है निराला-सा वह दढ़ियल<br><br>
'''11.<br><br>
कुछ दिनों बाद वह बूढ़ा मुझे दिखा<br>
दारागंज में ठाकुर कमला सिंह के यहाँ<br>
ठठवारी करते<br>
भैंस का गोबर उठाते<br>
सानी-पानी करते<br>
रखवारी करते<br>
रोटी पर रख कर दाल-भात खाते<br>
झाड़ू लगाते<br>
अगले दिन वह दिखा<br>
हनुमान मन्दिर के बाहर<br>
हात पसारे दाँत चियारे<br>
अगले दिन वह मिला<br>
नेहरू का आनन्द भवन अगोरते हुए<br>
नोचते हुए घास<br>
अगले दिन दिखा<br>
पंत उद्यान में पंत से रोते दुखड़ा<br>
अगले दिन वह दिखा हिन्दी विभाग के आगे<br>
अपनी सही व्याख्या के लिए अनशन पर बैठे<br>
नारा लगाते<br>
ऎंठे अध्यापकों से लात खा कर भी डटा था वह<br>
पर अध्यापक उसे समझने के लिए<br>
नहीं थे तैयार...<br><br>
'''12<br><br>
हिन्दी विभाग से वह कहाँ गुम हुआ<br>
कह नहीं सकता<br>
पर बिना बताए रह भी नहीं सकता<br>
आख़िरी बार उसे देखा गया<br>
रसूलाबाद घाट पर चंद्रशेखर आज़ाद की<br>
चिता भूमि पर गुम-सुम बैठे<br>
उसके पास एक पोथी थी<br>
एक चटाई थी<br>
साहित्यकारों की संसद में नई<br>
पोस्ट आई थी<br>
नज़दीक में ही कई चिताएँ जल रही थीं<br>
पानी पर कई नावें चल रही थीं<br>
चल रहा था क्या उसके मन में<br>
कहना कठिन है<br>
यह समय किसी भी निराला के लिए<br>
दुर्दिन है ।<br><br>
'''13<br><br>
रसूलाबाद घाट के बाद<br>
निराला जैसा दिख रहे<br>
उस आदमी की कोई थाह नहीं मिली<br>
वह गुम गया कहीं अपनों का त्यागा अभागा<br>
रह गए कुछ सवाल जिनके जवाब कौन दे<br>
कौन बताएगा कि<br>
वो बूढ़ा बोलता क्यों नहीं था अपने दुखों पर<br>
क्यों था चुप<br>
क्यों रहता था छिपकर<br>
उसके अपराध क्या थे<br>
क्यों जीता जाता था<br>
उसके साध क्या थे<br>
हालाँकि ये सारे सवाल पूछते हुए डरता हूँ<br>
जब उससे नहीं पूछ पाया<br>
तो अब यह सवाल क्यों उठाता हूँ<br>
जैसे सब भूल गए हैं उसे<br>
मैं भी क्यों नहीं भूल जाता हूँ<br>
क्या ज़रूरत है अब<br>
किसी बेघर बूढ़े की बात उठाने की<br>
क्या ज़रूरत है उस बूढ़े को ढूंढ़ने की<br>
इस देश में एक वही तो नहीं था दुत्कारा ।<br><br>
'''14<br><br>
रसूलाबाद घाट की सीढ़ियों पर<br>
लिखा मिला उसी जगह<br>
खड़िया से एक वाक्य<br>
जिस पर थोड़ी दुविधा है<br>
कुछ का कहना है कि यह<br>
उसी पागल बूढ़े के हाथ का<br>
लेखा है<br>
कुछ का कहना है कि<br>
यह घाट पर रहने वालों में से किसी का लिखा है<br>
बकवास है<br>
लिखा था वहाँ--<br>
'जितना नहीं मरा था मैं<br>
भूख और प्यास से<br>
उससे कहीं ज़्यादा मरा था मैं<br>
अपनों के उपहास से'<br><br><br>
बहिला=वे गायें जो गर्भ धारण नहीं कर सकतीं