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अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
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उसके होंठों में विस्मय की ध्वनि तरंग बनूँगा। | उसके होंठों में विस्मय की ध्वनि तरंग बनूँगा। | ||
तुम्हारी लपटों को मैं लगातार प्यार की बारिश बन बुझाऊँगा। | तुम्हारी लपटों को मैं लगातार प्यार की बारिश बन बुझाऊँगा। | ||
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+ | पहाड़ को नंगा करते वक्त तुमने सोचा न था | ||
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+ | पहाड़-१ | ||
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+ | पहाड़ को कठोर मत समझो | ||
+ | पहाड़ को नोचने पर | ||
+ | पहाड़ के अाँसू बह अाते हैं | ||
+ | सड़कें करवट बदल | ||
+ | चलते-चलते रुक जाती हैं | ||
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+ | दूर से देखते हो तो | ||
+ | पहाड़ ऊँचा दिखता है | ||
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+ | करीब आओ | ||
+ | पहाड़ तुम्हें ऊपर खींचेगा | ||
+ | पहाड़ के ज़ख्मी सीने में | ||
+ | रिसते धब्बे देख | ||
+ | चीखो मत | ||
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+ | पहाड़ को नंगा करते वक्त | ||
+ | तुमने सोचा न था | ||
+ | पहाड़ के जिस्म में भी | ||
+ | छिपे रहस्य हैं। | ||
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+ | पहाड़-२ | ||
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+ | इसलिए अब | ||
+ | अकेली चट्टान को | ||
+ | पहाड़ मत समझो | ||
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+ | पहाड़ तो पूरी भीड़ है | ||
+ | उसकी धड़कनें | ||
+ | अलग-अलग गति से | ||
+ | बढ़ती-घटती रहती हैं | ||
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+ | अकेले पहाड़ का जमाना | ||
+ | बीत गया | ||
+ | अब हर ओर | ||
+ | पहाड़ ही पहाड़ हैं। | ||
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+ | पहाड़-३ | ||
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+ | पहाड़ों पर रहने वाले लोग | ||
+ | पहाड़ों को पसंद नहीं करते | ||
+ | पहाड़ों के साथ | ||
+ | हँस लेते हैं | ||
+ | रो लेते हैं | ||
+ | सोचते हैं | ||
+ | पहाड़ों पर आधी ज़िंदगी गुज़र गई | ||
+ | बाकी भी गुज़र जाएगी। | ||
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+ | (मूल रचना: १९८८; एक झील थी बर्फ की - आधार प्रकाशन, १९९०) |
00:15, 4 अक्टूबर 2007 का अवतरण
सात कविताएँ
१ वह जो बार बार पास आता है क्या उसे पता है वह क्या चाहता है
वह जाता है लौटकर नाराज़गी के मुहावरों के किले गढ़ भेजता है शब्दों की पतंगें
मैं समझता हूँ मैं क्या चाहता हूँ क्या सचमुच मुझे पता है मैं क्या चाहता हूँ
जैसे चाँद पर मुझे कविता लिखनी है वैसे ही लिखनी है उस पर भी मज़दूरों के साथ बिताई एक शाम की चाँदनी में लौटते हुए एक चाँद उसके लिए देखता हूँ
चाँदनी हम दोनों को छूती पार करती असंख्य वन-पर्वत बीहड़ों से बीहड़ इंसानी दरारों को पार करती चाँदनी
उस पर कविता लिखते हुए लिखता हूँ तांडव गीत तोड़ दो, तोड़ दो, सभी सीमाओं को तोड़ दो।
२ कराची में भी कोई चाँद देखता है युद्ध सरदार परेशान ऐेसे दिनों में हम चाँद देख रहे हैं
चाँद के बारे में सबसे अच्छी खबर कि वहाँ कोई हिंद पाक नहीं है चाँद ने उन्हें खारिज शब्दों की तरह कूड़ेदानी में फेंक दिया है।
आलोक धन्वा, तुम्हारे जुलूस में मैं हूँ, वह है चाँद की पकाई खीर खाने हम साथ बैठेंगे बगदाद, कराची, अमृतसर, श्रीनगर जा जा अनधोए अंगूठों पर चिपके दाने चाटेंगे।
३ चाँद से अनगिनत इच्छाएँ साझी करता हूँ चाँद ने मेरी बातें बहुत पहले सुन ली हैं फिर भी कहता हूँ और चाँद का हाथ अपने बालों में अनुभव करता हूँ
चाँद ने कागज कलम बढ़ाते हुए कविताएँ लिखने को कहा है
सायरेन बज रहा है।
४ मेरे लिए भी कोई सोचता है अँधेरे में तारों की रोशनी में उसे देखता हूँ दूर खिड़की पर उदास खड़ी है। दबी हुई मुस्कान जो दिन भर उसे दिगंत तक फैलाए हुए थी उस वक्त बहुत दब गई है।
अनगिनत सीमाओं पार खिड़की पर वह उदास है। उसके खयालों में मेरी कविताएँ हैं। सीमाएँ पार करते हुए गोलीबारी में कविताएँ हैं लहूलुहान।
वह मेरी हर कविता की शुरुआत। वह काश्मीर के बच्चों की उदासी। वह मेरा बसंत, मेरा नवगीत, वह मुर्झाए पौधों के फिर से खिलने सी।
५ वह जो मेरा है मेरे पास होकर भी मुझ से बहुत दूर है। पास आने के मेरे उसके खयाल आश्चर्य का छायाचित्र बन दीवार पर टँगे हैं, द्विआयामी अस्तित्व में हम अवाक देखते हैं हमारे बीच की ऊँची दीवार।
ईश्वर अल्लाह तेरे नाम अनजान लकीर के इस पार उस पार उँगलियाँ छूती हैं स्पर्श पौधा बन पुकारता है स्पर्श ही अल्लाह, स्पर्श ही ईश्वर।
६ मैं कौन हूँ? तुम कौन हो? मैं एक पिता देखता हूँ पितृहीन प्राण। ग्रहों को पार कर मैं आया हूँ एक भरपूर जीवन जीता बयालीस की बालिग उम्र देख रहा हूँ एक बच्चे को मेरा सीना चाहिए
उसकी निश्छलता की लहरों में मैं काँपता हूँ मेरे एकाकी क्षणों में उसका प्रवेश सृष्टि का आरंभ है मेरी दुनिया बनाते हुए वह मुस्कराता है सुनता हूँ बसंत के पूर्वाभास में पत्तियों की खड़खड़ाहट दूर दूर से आवाज़ें आती हैं उसके होने के उल्लास में आश्चर्य मानव संतान अपनी संपूर्णता के अहसास से बलात् दूर उँगलियाँ उठाता है, माँगता है भोजन के लिए कुछ पैसे।
७ मुड़ मुड़ उसके लिए दढ़ियल बरगद बनने की प्रतिज्ञा करता हूँ। सन् २००० में मेरी दाढ़ी खींचने पर धू धू लपटें उसे घेर लेंगीं। मेरी नियति पहाड़ बनाने के अलावा और कुछ नहीं। उसकी खुली आँखों को सिरहाने तले सँजोता हूँ। उड़नखटोले पर बैठते वक्त वह मेरे पास होगा।
युद्ध सरदारों सुनो! मैं उसे बूँद बूँद अपने सीने में सींचूँगा। उसे बादल बन ढक लूँगा। उसकी आँखों में आँसू बन छल छल छलकूँगा। उसके होंठों में विस्मय की ध्वनि तरंग बनूँगा। तुम्हारी लपटों को मैं लगातार प्यार की बारिश बन बुझाऊँगा।
पहाड़ को नंगा करते वक्त तुमने सोचा न था
पहाड़-१
पहाड़ को कठोर मत समझो पहाड़ को नोचने पर पहाड़ के अाँसू बह अाते हैं सड़कें करवट बदल चलते-चलते रुक जाती हैं
पहाड़ को दूर से देखते हो तो पहाड़ ऊँचा दिखता है
करीब आओ पहाड़ तुम्हें ऊपर खींचेगा पहाड़ के ज़ख्मी सीने में रिसते धब्बे देख चीखो मत
पहाड़ को नंगा करते वक्त तुमने सोचा न था पहाड़ के जिस्म में भी छिपे रहस्य हैं।
पहाड़-२
इसलिए अब अकेली चट्टान को पहाड़ मत समझो
पहाड़ तो पूरी भीड़ है उसकी धड़कनें अलग-अलग गति से बढ़ती-घटती रहती हैं
अकेले पहाड़ का जमाना बीत गया अब हर ओर पहाड़ ही पहाड़ हैं।
पहाड़-३
पहाड़ों पर रहने वाले लोग पहाड़ों को पसंद नहीं करते पहाड़ों के साथ हँस लेते हैं रो लेते हैं सोचते हैं पहाड़ों पर आधी ज़िंदगी गुज़र गई बाकी भी गुज़र जाएगी।
(मूल रचना: १९८८; एक झील थी बर्फ की - आधार प्रकाशन, १९९०)