"कलगी बाजरे की / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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− | दोलती कलगी छरहरे बाजरे की। | + | दोलती कलगी छरहरे बाजरे की। |
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− | अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका | + | अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका |
− | अब नहीं कहता, | + | अब नहीं कहता, |
− | या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई, | + | या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई, |
− | टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो | + | टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो |
− | नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है | + | नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है |
− | या कि मेरा प्यार मैला है। | + | या कि मेरा प्यार मैला है। |
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− | बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं। | + | बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं। |
− | देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच। | + | देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच। |
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− | कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है। | + | कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है। |
− | मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी : | + | मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी : |
− | तुम्हारे रूप के-तुम हो, निकट हो, इसी | + | तुम्हारे रूप के-तुम हो, निकट हो, इसी जादू के- |
− | निजी किसी सहज, गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूं- | + | निजी किसी सहज, गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूं- |
− | अगर मैं यह कहूं- | + | अगर मैं यह कहूं- |
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− | बिछली घास हो तुम | + | बिछली घास हो तुम लहलहाती हवा मे कलगी छरहरे बाजरे की ? |
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− | आज हम शहरातियों को | + | आज हम शहरातियों को |
− | पालतु मालंच पर संवरी जुहि के फ़ूल से | + | पालतु मालंच पर संवरी जुहि के फ़ूल से |
− | सृष्टि के विस्तार का- ऐश्वर्य का- औदार्य का- | + | सृष्टि के विस्तार का- ऐश्वर्य का- औदार्य का- |
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक | कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक | ||
− | बिछली घास है, | + | बिछली घास है, |
− | या शरद की सांझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी | + | या शरद की सांझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी |
− | अकेली | + | अकेली |
− | बाजरे की। | + | बाजरे की। |
− | + | ||
− | और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूं | + | और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूं |
− | यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट आता है- | + | यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट आता है- |
− | और मैं एकान्त होता हूं समर्पित | + | और मैं एकान्त होता हूं समर्पित |
− | + | ||
− | शब्द | + | शब्द जादू हैं- |
− | मगर क्या समर्पण कुछ नहीं है ?< | + | मगर क्या समर्पण कुछ नहीं है ? |
+ | </poem> |
15:30, 6 अगस्त 2012 का अवतरण
हरी बिछली घास।
दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।
अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई,
टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :
तुम्हारे रूप के-तुम हो, निकट हो, इसी जादू के-
निजी किसी सहज, गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूं-
अगर मैं यह कहूं-
बिछली घास हो तुम लहलहाती हवा मे कलगी छरहरे बाजरे की ?
आज हम शहरातियों को
पालतु मालंच पर संवरी जुहि के फ़ूल से
सृष्टि के विस्तार का- ऐश्वर्य का- औदार्य का-
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक
बिछली घास है,
या शरद की सांझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी
अकेली
बाजरे की।
और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूं
यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट आता है-
और मैं एकान्त होता हूं समर्पित
शब्द जादू हैं-
मगर क्या समर्पण कुछ नहीं है ?