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"सागर मुद्रा - 4 / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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सागर पर
उदास एक छाया घिरती रही
मेरे मन में वही एक प्यास तिरती रही
लहर पर लहर पर लहर :
कहीं राह कोई दीखी नहीं,
बीत गया पहर,
फिर दीठ नहीं ठहर गयी
जहाँ गाँठ थी। जो खोलनी ही तो
हम ने चाही नहीं, सीखी नहीं।
छा गया अँधेरा फिर : जल थिर, समीर थिर;
ललक, जो धुँधला गयी थी, चिनगियाँ विकिरती रहीं...
मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969