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कितने प्रसन्न रहते आये हैं।
युग युग के धृतराष्ट्र, सोच कर
गान्धारी ने पट्टी बाँधी थी
होने को सहभागिन
उनके अभाग की।
आह! देख पाते वे-
मगर यही तो था उनका असली अन्धापन!-
गान्धारी ने लगातार उनके अन्याय सहे जाने से
अत्याचारों के प्रति उनके
उदासीन स्वीकार भाव के
लगातार साक्षी होने से
अच्छा समझा था अन्धे हो जाना।
वह अन्धापन नहीं वंशवद
पुरुष मात्र के अन्ध अहं का
उसका तिरस्कार है :
नारी की नकार मुद्रा ज्वाला ढँकी हुई
यों अनबुझ।