भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"साँझ के सारस / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=ऐसा कोई घर आपने दे...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
17:12, 10 अगस्त 2012 के समय का अवतरण
घिर रही है साँझ
हो रहा अब समय
घर कर ले उदासी।
तौल अपने पंख, सारस दूर के
इस देश में तू है प्रवासी।
रात! तारे हों न हों
रवहीनता को सघनतर कर दे अँधेरा
तू अदीन, लिये हिये में
चित्र ज्योति-प्रकाश का
करना जहाँ तुझको सवेरा।
थिर गयी जो लहर, वह सो जाए
तीर-तरु का बिम्ब भी अव्यक्त में खो जाए
मेघ, मरु, मारुत, मरुण अब आये जो सो आये।
कर नमन बीते दिवस को, धीर!
दे उसी को सौंप
यह अवसाद का लघु पल
निकल चल! सारस अकेले!