भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सन्ध्या-संकल्प / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=अज्ञेय
 
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
+
|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय; सुनहरे शैवाल / अज्ञेय
 
}}  
 
}}  
 
+
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 
यह सूरज का जपा-फूल
 
यह सूरज का जपा-फूल
 
 
नैवेद्य चढ़ चला
 
नैवेद्य चढ़ चला
 
 
सागर-हाथों
 
सागर-हाथों
 
 
अम्बा तिरमिरायी को:
 
अम्बा तिरमिरायी को:
 
 
रुको साँस-भर,
 
रुको साँस-भर,
 
 
फिर मैं यह पूजा-क्षण
 
फिर मैं यह पूजा-क्षण
 
 
तुम को दे दूँगा।
 
तुम को दे दूँगा।
 
 
  
 
क्षण अमोघ है, इतना मैंने
 
क्षण अमोघ है, इतना मैंने
 
 
पहले भी पहचाना है
 
पहले भी पहचाना है
 
 
इस लिए साँझ को नश्वरता से नहीं बांधता।
 
इस लिए साँझ को नश्वरता से नहीं बांधता।
 
 
किन्तु दान भी है अमोघ, अनिवार्य,
 
किन्तु दान भी है अमोघ, अनिवार्य,
 
 
धर्म:
 
धर्म:
 
 
यह लोकालय में
 
यह लोकालय में
 
 
धीरे-धीरे जान रहा हूँ
 
धीरे-धीरे जान रहा हूँ
 
 
(अनुभव के सोपान!)  
 
(अनुभव के सोपान!)  
 
 
और
 
और
 
 
दान वह मेरा एक तुम्हीं को है।
 
दान वह मेरा एक तुम्हीं को है।
 
 
यह एकोन्मुख तिरोभाव—
 
यह एकोन्मुख तिरोभाव—
 
 
इतना-भर मेरा एकान्त निजी है—
 
इतना-भर मेरा एकान्त निजी है—
 
 
मेरा अर्जित:
 
मेरा अर्जित:
 
 
वही दे रहा हूँ
 
वही दे रहा हूँ
 
 
ओ मेरे राग-सत्य!
 
ओ मेरे राग-सत्य!
 
 
मैं  
 
मैं  
 
 
तुम्हें।
 
तुम्हें।
 
 
  
 
ऐसे तो हैं अनेक  
 
ऐसे तो हैं अनेक  
 
 
जिन के द्वारा
 
जिन के द्वारा
 
 
मैं जिया गया;
 
मैं जिया गया;
 
 
ऐसा है बहुत
 
ऐसा है बहुत
 
 
जिसे मैं दिया गया।
 
जिसे मैं दिया गया।
 
 
यह इतना
 
यह इतना
 
 
मैंने दिया।
 
मैंने दिया।
 
 
अल्प यह लय-क्षण
 
अल्प यह लय-क्षण
 
 
मैंने जिया।
 
मैंने जिया।
 
 
  
 
आह, यह विस्मय!
 
आह, यह विस्मय!
 
 
उसे तुम्हें दे सकता हूँ मैं।
 
उसे तुम्हें दे सकता हूँ मैं।
 
 
उसे दिया।
 
उसे दिया।
 
 
इस पूजा-क्षण में
 
इस पूजा-क्षण में
 
 
सहज, स्वतः प्रेरित
 
सहज, स्वतः प्रेरित
 
 
मैंने संकल्प किया।
 
मैंने संकल्प किया।
  
----
+
<span style="font-size:14px">६ मार्च १९६३</span>
 
+
</poem>
६ मार्च १९६३
+

10:47, 13 अगस्त 2012 के समय का अवतरण

यह सूरज का जपा-फूल
नैवेद्य चढ़ चला
सागर-हाथों
अम्बा तिरमिरायी को:
रुको साँस-भर,
फिर मैं यह पूजा-क्षण
तुम को दे दूँगा।

क्षण अमोघ है, इतना मैंने
पहले भी पहचाना है
इस लिए साँझ को नश्वरता से नहीं बांधता।
किन्तु दान भी है अमोघ, अनिवार्य,
धर्म:
यह लोकालय में
धीरे-धीरे जान रहा हूँ
(अनुभव के सोपान!)
और
दान वह मेरा एक तुम्हीं को है।
यह एकोन्मुख तिरोभाव—
इतना-भर मेरा एकान्त निजी है—
मेरा अर्जित:
वही दे रहा हूँ
ओ मेरे राग-सत्य!
मैं
तुम्हें।

ऐसे तो हैं अनेक
जिन के द्वारा
मैं जिया गया;
ऐसा है बहुत
जिसे मैं दिया गया।
यह इतना
मैंने दिया।
अल्प यह लय-क्षण
मैंने जिया।

आह, यह विस्मय!
उसे तुम्हें दे सकता हूँ मैं।
उसे दिया।
इस पूजा-क्षण में
सहज, स्वतः प्रेरित
मैंने संकल्प किया।

६ मार्च १९६३