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साँचा:KKPoemOfTheWeek

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<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png|middle]]</td>
<td rowspan=2>
<div style="font-size:15px; font-weight:bold">नदी के दो किनारेएक तू ही नहीं है</div><div style="font-size:15px;"> योगदानकर्ता:[[मृदुल कीर्तिसाहिर लुधियानवी| मृदुल कीर्तिसाहिर लुधियानवी]] </div>
</td>
</tr>
</table><pre style="text-align:left;overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
दो शरीर परस्पर सलगपरस्पर विलगआत्मीय आदान-प्रदान का सेतु बंधहर चीज़ ज़माने की जहाँ पर थी वहीं है,था एक तू ही नहीं हैआकर्षण विकर्षण का प्रतिबिम्ब ,था ही नहीं ।नज़रें भी वही और नज़ारे भी वही हैंपरस्पर प्रति,सहज समर्पण, स्नेहानुबंध ख़ामोश फ़ज़ाओं के इशारे भी वही हैंथा ही कहने को तो सब कुछ है, मगर कुछ भी नहीं हैनितांत असम्पृक्त एकाकी होकर भी ।हम निरंतर इस तरह साथ हैं,हर अश्क में खोई हुई ख़ुशियों की झलक हैजैसे धरती पर छाया आकाश ,हर साँस में बीती हुई घड़ियों की कसक हैविराट नदी के दो अदृश्य किनारेतू चाहे कहीं भी हो,तेरा दर्द यहीं हैपरस्पर सलग हसरत नहीं,अरमान नहीं, आस नहीं हैपरस्पर विलग । यादों के सिवा कुछ भी मेरे पास नहीं हैयादें भी रहें या न रहें किसको यक़ीं है
</pre></center></div>
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