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+ | बना ली प्रतिमा | ||
+ | हाथ, पांव, नाक, कान, अंगों की भंगिमा | ||
+ | पोत दिया अधर तल | ||
+ | और सुंदर भृकुटि युगल | ||
+ | मेहनत करके आँखों में डाला अंजन | ||
+ | रूप- रंग लगाकर बना दिया अरूप निरंजन | ||
+ | मनमाने ढंग से लिख दिया आलेख | ||
+ | लिखपढ़ कर सोचा रचूंगा अलेख ! | ||
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+ | श्रद्धा, भक्ति और विश्वास | ||
+ | किया निवेदन धूप, दीप नाना रस गंध में | ||
+ | पूजा की देव चरण के परम आनंद में। | ||
+ | प्रेम का दीपक जलाया | ||
+ | व्याकुलता के आँसू बहाए | ||
+ | आशा रखी देव- दया की | ||
+ | करने को हल्का जीवन का स्तूपीकृत भार | ||
+ | देव अनुग्रह पाकर | ||
+ | पूरा करूंगा जीवन के असंख्य आकांक्षा आग्रह | ||
+ | मगर कुछ भी नहीं मिला, न कामना पूरी हुई | ||
+ | बैठकर सोचने लगा करूंगा निष्काम साधना | ||
+ | उतारूंगा आर्त आरती | ||
+ | अमूर्त मूर्ति ! | ||
+ | हे देव ! | ||
+ | सुनना मेरे जीवन की जड़ीभूत व्यथा | ||
+ | चाहत नहीं मुझे धनमान यश की | ||
+ | तनिक इच्छा नहीं दूसरे सुख और तुम्हारे स्पर्श की | ||
+ | यह जीवन पाकर | ||
+ | हो जाऊँ धन्य ! | ||
+ | हे सत्य पुण्यमय | ||
+ | बंदी की विनती एक बार तो सुनो हे मुक्त अव्यय ! | ||
+ | कहो, कुछ तो कहो | ||
+ | हे देवता ! | ||
+ | सुनता नहीं कोई, उत्तर देता नहीं कोई | ||
+ | अंचंचल यह मूक प्रस्तर | ||
+ | न मिलती कोई तृप्ति | ||
+ | पुकार-पुकार कर गला सूखा, | ||
+ | मगर कहाँ शांति, कहाँ मुक्ति ? | ||
+ | दूर में फेंककर पूजा-धूप | ||
+ | ओझल होते देवता का रूप | ||
+ | घृणा भरे | ||
+ | अपमान के स्वर में | ||
+ | गर्जते देवता | ||
+ | “नहीं शांति, नहीं मुक्ति, अकारण क्यों नवाते हो | ||
+ | माथा ? पूजा का आसन छोड़ो, खडे हो जाओ।” | ||
+ | हे चंचल, हे अशांत युवा ! | ||
+ | मुक्त राजपथ में | ||
+ | बैठकर द्रुततम रथ में | ||
+ | चलो, चलो, विश्व के विजय अभियान में | ||
+ | आकाश, विद्युत, वायु, जल, स्थल और लोह के संधान में | ||
+ | स्वर्ग मृत्य पाताल में प्रवेशकर | ||
+ | हे मृत्यु विद्वेषी ! | ||
+ | देखो, तुम्हारे चारों तरफ जीवंत देवता | ||
+ | सत्य के लिए जन्म तुम्हारा | ||
+ | कोरी कल्पनाओं के लिए नहीं | ||
+ | सत्य तुम्हारी देह, चक्षु, कर्ण | ||
+ | पाते हो जिससे गंध और वर्ण | ||
+ | नहीं है वह अलीक | ||
+ | उसी पथ में चलो, रे, निर्भीक !" | ||
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23:49, 23 अक्टूबर 2012 के समय का अवतरण
रचनाकार: कालिंदी चरण पाणिग्रही
जन्मस्थान: विश्वनाथपुर, पुरी
कविता संग्रह: छूरिटिए लोड़ा(1939), मनेनाही(1947), महाद्वीप(1948), क्षणिकसत्य(1949), मो कविता, अमरशहीद ।
बना ली प्रतिमा
हाथ, पांव, नाक, कान, अंगों की भंगिमा
पोत दिया अधर तल
और सुंदर भृकुटि युगल
मेहनत करके आँखों में डाला अंजन
रूप- रंग लगाकर बना दिया अरूप निरंजन
मनमाने ढंग से लिख दिया आलेख
लिखपढ़ कर सोचा रचूंगा अलेख !
करके प्राण-प्रतिष्ठा
श्रद्धा, भक्ति और विश्वास
किया निवेदन धूप, दीप नाना रस गंध में
पूजा की देव चरण के परम आनंद में।
प्रेम का दीपक जलाया
व्याकुलता के आँसू बहाए
आशा रखी देव- दया की
करने को हल्का जीवन का स्तूपीकृत भार
देव अनुग्रह पाकर
पूरा करूंगा जीवन के असंख्य आकांक्षा आग्रह
मगर कुछ भी नहीं मिला, न कामना पूरी हुई
बैठकर सोचने लगा करूंगा निष्काम साधना
उतारूंगा आर्त आरती
अमूर्त मूर्ति !
हे देव !
सुनना मेरे जीवन की जड़ीभूत व्यथा
चाहत नहीं मुझे धनमान यश की
तनिक इच्छा नहीं दूसरे सुख और तुम्हारे स्पर्श की
यह जीवन पाकर
हो जाऊँ धन्य !
हे सत्य पुण्यमय
बंदी की विनती एक बार तो सुनो हे मुक्त अव्यय !
कहो, कुछ तो कहो
हे देवता !
सुनता नहीं कोई, उत्तर देता नहीं कोई
अंचंचल यह मूक प्रस्तर
न मिलती कोई तृप्ति
पुकार-पुकार कर गला सूखा,
मगर कहाँ शांति, कहाँ मुक्ति ?
दूर में फेंककर पूजा-धूप
ओझल होते देवता का रूप
घृणा भरे
अपमान के स्वर में
गर्जते देवता
“नहीं शांति, नहीं मुक्ति, अकारण क्यों नवाते हो
माथा ? पूजा का आसन छोड़ो, खडे हो जाओ।”
हे चंचल, हे अशांत युवा !
मुक्त राजपथ में
बैठकर द्रुततम रथ में
चलो, चलो, विश्व के विजय अभियान में
आकाश, विद्युत, वायु, जल, स्थल और लोह के संधान में
स्वर्ग मृत्य पाताल में प्रवेशकर
हे मृत्यु विद्वेषी !
देखो, तुम्हारे चारों तरफ जीवंत देवता
सत्य के लिए जन्म तुम्हारा
कोरी कल्पनाओं के लिए नहीं
सत्य तुम्हारी देह, चक्षु, कर्ण
पाते हो जिससे गंध और वर्ण
नहीं है वह अलीक
उसी पथ में चलो, रे, निर्भीक !"