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हरि उच्चारणीं अनंत पापराशि । जातील लयासि क्षणमात्रें ॥१॥
तृण अग्निमेळें समरस झालें । तैसें नामें केलें जपतां हरि ॥२॥
हरि उच्चारण मंत्र हा अगाध । पळे भूतबाध भेणें तेथे ॥३॥
ज्ञानदेव म्हणे हरि माझा समर्थ । न करवे अर्थ उपनिषदां ॥४॥