"अलका सान्याल / सच्चिदानंद राउतराय / दिनेश कुमार माली" के अवतरणों में अंतर
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+ | जमीन पर बिछी हुई थीं लाखों स्वर्ण–मृग–खाल | ||
+ | शायद उस समय मैंने तुम्हें देखा ! | ||
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+ | एक झिलमिलाते स्तम्भ जड़ित सुनसान महल में | ||
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+ | तुम बनी शून्य- प्रदेश की धरती पर एक विचित्र छावनी | ||
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+ | उस दिन के बाद मैंने तुमको कितना खोजा | ||
+ | याद आ रहा है मैंने तुमको गन्धर्व चित्ररथ | ||
+ | के हाथों से एक दिन छुड़ाया था | ||
+ | तुमने मुझे इनाम भी दिया था | ||
+ | अपने दोनों कंचन-शंख मेरे वक्षस्थल के | ||
+ | पास नचाकर जय का उदघोष किया था | ||
+ | एक क्षण के लिए, क्षण भर के लिए | ||
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+ | उसके बाद कहाँ गई ? उस दिन के बाद किसमे विलीन हो गई ? | ||
+ | जहाँ दूर- दूर तक मुझे याद पड़ता हैं | ||
+ | नालंदा के निर्जन विहार में मेरी सहपाठी बनी थी | ||
+ | उस दिन तुम्हे एकांत में पाकर कुशल मंगल पूछा था | ||
+ | तुम्हारे काले बालों का जूडा बहुत सुन्दर लग रहा था | ||
+ | उसके बाद तुम अपने रास्ते पर गई और मै अपने | ||
+ | उस दिन से मैं तुम्हे एकांत बालूतट पर खोज रहा हूँ | ||
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+ | कलिंग कटक से दूर इलायची द्वीप के बंदरगाह पर | ||
+ | मै तुमको खोजते हुए चलता हूँ | ||
+ | तुम्हारे काले बालों की खुशबू सूंघते | ||
+ | सुदूर अनार द्वीप के पार आरी जैसी नुकीली कांच की बाड़ कूदते | ||
+ | तुम्हें बंधन -मुक्ति का उपहार देने | ||
+ | वादियों में, जंगल में, खोजा | ||
+ | सारे कारागार खोलकर देखे | ||
+ | मेरी बंदिनी तुम कहाँ हो ? | ||
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+ | खोज रहा हूँ काले घोड़े पर सवार होकर | ||
+ | किन्तु आज समय की चोरबालू पारकर | ||
+ | मैंने तुम्हें मुर्दाघाट "नुअखाली" में छुपते पाया . | ||
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23:51, 24 अक्टूबर 2012 का अवतरण
रचनाकार: सच्चिदानंद राउतराय(1913)
जन्मस्थान: खोर्द्धा , पुरी
कविता संग्रह: पाथेय(1931), पूर्णिमा(1933), अभियान(1938), रक्तशिखा(1939), पल्लीश्री(1941), बाजिराउत(1943), पांडुलिपि(1947), हसंत(1949)स भानुमतीर देश(1949), अभिज्ञान (1949), स्वागत(1958), कविता(1962 से 1998 ), एशियार स्वप्न(1970)
पहली बार जब तुम्हें देखा था अलका सान्याल
विदेह राजनगरी में उस फाल्गुन की सुहानी गोधूलि वेला में
जमीन पर बिछी हुई थीं लाखों स्वर्ण–मृग–खाल
शायद उस समय मैंने तुम्हें देखा !
अचानक तुम कहाँ गायब हो गई,
मैंने तुमको कहाँ- कहाँ नहीं खोजा
युगों-युगों के बाद आखिर तुम मुझे मिली
देखते- देखते फिर कहीं अंतर्धान हो गई
जहाँ तक मुझे याद हैं हम वारुणावंत में मिले थे
एक झिलमिलाते स्तम्भ जड़ित सुनसान महल में
नज़रों के सामने तुम्हारी बलात्कृत-छाया धोखा दे गई
एक पल में लोप हो गई, कहाँ गई?, फिर कहाँ खो गई?
तुम बनी शून्य- प्रदेश की धरती पर एक विचित्र छावनी
उस दिन के बाद मैंने तुमको कितना खोजा
याद आ रहा है मैंने तुमको गन्धर्व चित्ररथ
के हाथों से एक दिन छुड़ाया था
तुमने मुझे इनाम भी दिया था
अपने दोनों कंचन-शंख मेरे वक्षस्थल के
पास नचाकर जय का उदघोष किया था
एक क्षण के लिए, क्षण भर के लिए
उसके बाद कहाँ गई ? उस दिन के बाद किसमे विलीन हो गई ?
जहाँ दूर- दूर तक मुझे याद पड़ता हैं
नालंदा के निर्जन विहार में मेरी सहपाठी बनी थी
उस दिन तुम्हे एकांत में पाकर कुशल मंगल पूछा था
तुम्हारे काले बालों का जूडा बहुत सुन्दर लग रहा था
उसके बाद तुम अपने रास्ते पर गई और मै अपने
उस दिन से मैं तुम्हे एकांत बालूतट पर खोज रहा हूँ
कलिंग कटक से दूर इलायची द्वीप के बंदरगाह पर
मै तुमको खोजते हुए चलता हूँ
तुम्हारे काले बालों की खुशबू सूंघते
सुदूर अनार द्वीप के पार आरी जैसी नुकीली कांच की बाड़ कूदते
तुम्हें बंधन -मुक्ति का उपहार देने
वादियों में, जंगल में, खोजा
सारे कारागार खोलकर देखे
मेरी बंदिनी तुम कहाँ हो ?
खोज रहा हूँ काले घोड़े पर सवार होकर
किन्तु आज समय की चोरबालू पारकर
मैंने तुम्हें मुर्दाघाट "नुअखाली" में छुपते पाया .