"आयामों के इन्द्रधनुष / रामस्वरूप परेश" के अवतरणों में अंतर
पंक्ति 46: | पंक्ति 46: | ||
चाँद धरती पे इशारों से बुलाया न गया | | चाँद धरती पे इशारों से बुलाया न गया | | ||
लाख कोशिश हुई सुधियों को भुलाने की | लाख कोशिश हुई सुधियों को भुलाने की | ||
− | जब कोई याद मुझे आया तो भुलाया न गया | | + | जब कोई याद मुझे आया तो भुलाया न गया | |
+ | [९] | ||
+ | इन्तजार का का मृदु क्षण मुझको पखवारे सा लगता है | | ||
+ | हर दरवाजा मुझको तेरे दरवाजे-सा लगता है | | ||
+ | सच कहता हूँ खाकर मैं सौगंध तुम्हारे अधरों की | ||
+ | बिना तुम्हारे सांस स्वयं का अंगारे-सा लगता है| | ||
+ | [१०] | ||
+ | अंगारों पर चला सदा मैं अंतर में मधुमास लिये | | ||
+ | जूझा हूँ पग-पग झंझा से कूलों का विश्वास लिये | | ||
+ | तुम्ही चढ़ावोगे आंसू का अर्ध्य हमारे गीतों पर | ||
+ | इस कारण हँसता आया हूँ मैं जगती का उपहास लिये | | ||
+ | [११] | ||
+ | सांस वह जिसने समय को दी रवानी है | | ||
+ | जो फिसलते को संभाले वह जवानी है | | ||
+ | नींद क्यों आती नहीं बेचैन है मन | ||
+ | शायद किसी मनुज की आँख में पानी है | | ||
+ | [१२] | ||
+ | हर आदमी को औरों के लिये जीना भी नहीं आता है | | ||
+ | हर सपन को साध का जिल्द-सीना भी नहीं आता है | | ||
+ | अफसोस मुकद्दर ने सुराही पे सुराही दी उन्हें | ||
+ | महफ़िल में जिनको तमीज से पीना भी नहीं आता है | | ||
+ | |||
<poem> | <poem> |
09:04, 25 अक्टूबर 2012 का अवतरण
[१]
मेरे माथे का हिम किरीट, ऊंचा नगराज हिमालय है |
हर प्रीत भरे उर का परिचय बस ताजमहल ही में लय है |
मेरी भृकुटि में महा प्रलय मेरी मुस्कानों में अमृत
मैं तो इस भारत की मांटी मेरा इतना सा परिचय है |
[२]
जब-जब स्वतन्त्रता के पट में कोई अंगार सजाता है |
शान्ति सुहागिन के कोई शोणित से हाथ रचाता है |
भिन्न- भिन्न हैं जाति धर्म पर जब स्वदेश पर संकट हो
मन्दिर बढ़कर मस्जिद के माथे पर तिलक लगाता है |
[३]
ऐसा गीत उचार की जिससे कुछ अँधियारा कम हो जाये |
ईश्वर की पाषाणी मूरत की भी आंखे नम हो जायें |
द्वार-द्वार पर दीप जलाकर जग का तिमिर भगाने वाले
बनकर स्वयं दीप जल जिससे हर मावस पूनम हो जाये |
[४]
मनुज मनुज को नहीं मानता है |
ईमान क्या वह नहीं जानता है |
किसी की विवशता पे हंस दो भले
गुजरती है जिस पर वही जानता है |
[५]
मृदु जुन्हाई रजत शर से प्राण-बाला तिलमिलाई |
हर विवश मुस्कान पर शत वेदनाएं खिलखिलाई |
नयन निर्झर में घुली हैं स्वप्न की छवियाँ मनोहर
ह्रदय-दर्पण में कभी जब सुधि तुम्हारी झिलमिलाई |
[६]
कारवां की धूल पर हम शीश धुनते रह गए |
हम तो अपनों की कमी का जाल बुनते रह गये |
आदमी के जनाजे में भी न हो सके शरीक
अफ़सोस कि पत्थर के लिए फूल चुनते रह गये |
[७]
जमाने से मिले अभिशाप कब वरदान बन जायेँ |
न जाने कौन-सी पीड़ा मधुर मुस्कान बन जायेँ |
अत: मैं हर गली की धूल को मस्तक नवाता हूँ
न जाने कौन-सा रज-कण मेरा भगवान बन जायेँ |
[८]
दर्द जागा तो गीतों से सुलाया न गया |
चाँद धरती पे इशारों से बुलाया न गया |
लाख कोशिश हुई सुधियों को भुलाने की
जब कोई याद मुझे आया तो भुलाया न गया |
[९]
इन्तजार का का मृदु क्षण मुझको पखवारे सा लगता है |
हर दरवाजा मुझको तेरे दरवाजे-सा लगता है |
सच कहता हूँ खाकर मैं सौगंध तुम्हारे अधरों की
बिना तुम्हारे सांस स्वयं का अंगारे-सा लगता है|
[१०]
अंगारों पर चला सदा मैं अंतर में मधुमास लिये |
जूझा हूँ पग-पग झंझा से कूलों का विश्वास लिये |
तुम्ही चढ़ावोगे आंसू का अर्ध्य हमारे गीतों पर
इस कारण हँसता आया हूँ मैं जगती का उपहास लिये |
[११]
सांस वह जिसने समय को दी रवानी है |
जो फिसलते को संभाले वह जवानी है |
नींद क्यों आती नहीं बेचैन है मन
शायद किसी मनुज की आँख में पानी है |
[१२]
हर आदमी को औरों के लिये जीना भी नहीं आता है |
हर सपन को साध का जिल्द-सीना भी नहीं आता है |
अफसोस मुकद्दर ने सुराही पे सुराही दी उन्हें
महफ़िल में जिनको तमीज से पीना भी नहीं आता है |