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+ | हम शहरी लोग | ||
+ | निकले देखने को कोणार्क ! | ||
+ | गाडी से उड़ाते लाल धूल के गुबार | ||
+ | मुँह में चुरूट , कंधे पर थैली | ||
+ | बैठे चिपकाकर कुर्ते और चोली। | ||
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+ | हम भद्र जन | ||
+ | पहने हुए सोने के बटन | ||
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+ | शहर की सीमा से दूर अंधेरे में | ||
+ | एक ग्राम | ||
+ | पता नहीं उसका नाम | ||
+ | वहाँ पर ठहरे हम | ||
+ | नारियल पानी पीने की हुई इच्छा भारी | ||
+ | सामने दिखाई पड़ी एक किशोरी ? | ||
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+ | गाय की तरह भोली | ||
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+ | चुपचाप बैठा मैं | ||
+ | ध्यान-मग्न | ||
+ | तभी दिखाया संगिनी ने | ||
+ | बॉस की झाड़ियों के सामने कबूतर | ||
+ | कहीं धान के खेत | ||
+ | कहीं झाऊँ और बादाम के वन | ||
+ | किसी के बरामदे में लटकती लौकी | ||
+ | ये सब देखा हमने | ||
+ | सूरज रहते- रहते। | ||
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+ | उसके बाद हो गई रात | ||
+ | चमकने लगे पोलांग पेड़ के पात | ||
+ | ऊपर चाँद की चांदनी | ||
+ | नीचे विस्तीर्ण घास की चटाइयां | ||
+ | जिस पर बादलों के जादू से | ||
+ | कई छोटी कई बड़ी परछाइयां । | ||
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+ | ये सब देखा हमने | ||
+ | धूल और चुरूट के धुँए में | ||
+ | “क्या तुमने कोणार्क देखा है ?” | ||
+ | लाल होठों वाली लड़की ने पूछा | ||
+ | “अंगडाई लेती कन्या की छाती | ||
+ | वास्तव में पत्थर से गठित ?” | ||
+ | दांत दबाकर हँसा वह | ||
+ | अपनी बहुत कीमती हँसी | ||
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+ | उसके बाद पार किये हमने | ||
+ | अनेक झाऊँ-जंगल | ||
+ | अनेक रेत के टीले | ||
+ | गोप गाँव ...निमापाड़ा | ||
+ | सोचा हमने बहुत बड़े होंगे कोणार्क के हाथी | ||
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+ | यहाँ पर रोकी गाड़ी | ||
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+ | पहुँचे हम सभी दूर वहां | ||
+ | सुनाई देता समुद्र-नाद जहाँ । | ||
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+ | मुर्गी की हड्डी लेकर कुत्ता | ||
+ | चबा रहा चुपचाप | ||
+ | अंडे के खोल और मछली के काँटे | ||
+ | चारों तरफ रेत ही रेत | ||
+ | यहाँ पर है डाक-बंगला | ||
+ | झालर-पंखा, आराम-चौकी | ||
+ | निश्चित नींद का मजा | ||
+ | कुछ नहीं केवल शौक़ीन मिजाज। | ||
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+ | सोते- सोते सोच रहा था मैं | ||
+ | भूल जाउंगा आगे और पीछे | ||
+ | आँखें तरेरते, भृकुटी सिकोड़ते | ||
+ | थोड़ा हँसते हुए पूछा, | ||
+ | उस लड़की ने मुझसे | ||
+ | “ क्या तुमने कोणार्क देखा है ?” | ||
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15:55, 25 अक्टूबर 2012 के समय का अवतरण
रचनाकार: भानुजी राव(1926)
जन्मस्थान: कटक
कविता संग्रह: नूतन कविता (1955), विषाद एक ऋतु(1973), नई आरपारी(1986), चंदन बनरे एका(1994), दर्पण आगरे(1995), एका एवं एका एका(1996), हल्दी पत्रर वासना(1997)
हम शहरी लोग
निकले देखने को कोणार्क !
गाडी से उड़ाते लाल धूल के गुबार
मुँह में चुरूट , कंधे पर थैली
बैठे चिपकाकर कुर्ते और चोली।
हम भद्र जन
पहने हुए सोने के बटन
साथ में ताश ,ग्रामोफोन
और पास बोतल में रम
शहर की सीमा से दूर अंधेरे में
एक ग्राम
पता नहीं उसका नाम
वहाँ पर ठहरे हम
नारियल पानी पीने की हुई इच्छा भारी
सामने दिखाई पड़ी एक किशोरी ?
देख रही शांत-भाव से वह गोरी
गाय की तरह भोली
चुपचाप बैठा मैं
ध्यान-मग्न
तभी दिखाया संगिनी ने
बॉस की झाड़ियों के सामने कबूतर
कहीं धान के खेत
कहीं झाऊँ और बादाम के वन
किसी के बरामदे में लटकती लौकी
ये सब देखा हमने
सूरज रहते- रहते।
उसके बाद हो गई रात
चमकने लगे पोलांग पेड़ के पात
ऊपर चाँद की चांदनी
नीचे विस्तीर्ण घास की चटाइयां
जिस पर बादलों के जादू से
कई छोटी कई बड़ी परछाइयां ।
ये सब देखा हमने
धूल और चुरूट के धुँए में
“क्या तुमने कोणार्क देखा है ?”
लाल होठों वाली लड़की ने पूछा
“अंगडाई लेती कन्या की छाती
वास्तव में पत्थर से गठित ?”
दांत दबाकर हँसा वह
अपनी बहुत कीमती हँसी
उसके बाद पार किये हमने
अनेक झाऊँ-जंगल
अनेक रेत के टीले
गोप गाँव ...निमापाड़ा
सोचा हमने बहुत बड़े होंगे कोणार्क के हाथी
और घोड़े ।
यहाँ पर रोकी गाड़ी
रेत में घसीटकर पांव
पहुँचे हम सभी दूर वहां
सुनाई देता समुद्र-नाद जहाँ ।
मुर्गी की हड्डी लेकर कुत्ता
चबा रहा चुपचाप
अंडे के खोल और मछली के काँटे
चारों तरफ रेत ही रेत
यहाँ पर है डाक-बंगला
झालर-पंखा, आराम-चौकी
निश्चित नींद का मजा
कुछ नहीं केवल शौक़ीन मिजाज।
सोते- सोते सोच रहा था मैं
भूल जाउंगा आगे और पीछे
आँखें तरेरते, भृकुटी सिकोड़ते
थोड़ा हँसते हुए पूछा,
उस लड़की ने मुझसे
“ क्या तुमने कोणार्क देखा है ?”