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के विरोध में जनांदोलन को उपजीव्य करते हुए।)
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मुक्त धान की मंजरी शिखा तुम्हें अच्छी नहीं लगती
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नहीं लगते अच्छे तुम्हें शस्य श्यामल खेत, जनपद, मुक्त आकाश तल।
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नहीं लगता अच्छा तुम्हें विहंग कुंजन
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पिशाच को सिर्फ अच्छा लगता है श्मशान
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मौत की घाटी के नव निर्माण की योजना, घमंडी  की  चाल
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जनारण्य में पशु मरेंगे, हे धूसर महाबल !
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मनुष्य लिखता है इतिहास अब जाना पहचाना
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मनुष्य ने नहीं माना है कभी, मानेगा भी नहीं मौत का हुक्म-नामा
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मनुष्य की महानता,  मनुष्य नहीं है निरे कीड़े-मकोड़े
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मनुष्य बनाता है इस हरभरी धरती को सुंदरी
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बंदूक, गोली, कमान, राकेट मनुष्य की कारीगरी
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उसके विरोध में जनकंठ की आवाज से गूंज रहा है आकाश
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बालियापाल का वृद्ध युवा विद्रोह की ऋतु
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इसी ऋतु में द्रवित होती है धरती की धातु
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इसके ऊपर में उदार आकाश, हृदय में जीवन-वेद
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उसी आकाश  में बारुद के बादल होते हैं शांत
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खाकी रंग में डुबकर
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गति कल-कल, प्राण छल-छल
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चिर उद्वेल जनपद पथप्रांत।
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भरी राइफलें लेकर
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ताजी और विषाक्त बुलेट गोलियों से
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क्या खरीदा जा सकता है मनुष्य का मन ?
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हवा के प्रत्येक रंध्र को विदीर्ण करती घृणा की वीणा
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जन-यमुना के ज्वार को कभी देखा है ?
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सागर भी लगता है डोलने
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जनारण्य में उठ रहा है तूफान
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बच्चों से लेकर बूढ़ों तक और कुल बालाएँ
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रास्ते के राहगीर से लेकर खेत का किसान
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छोटा व्यापारी बड़े महाजन
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सभी साथ होकर
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पीट रहे हैं अपनी दुम इस जलसे में
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देख नौकरशाही सरकार
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अधिक दिन किसी की भी नहीं चली
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मानव-विरोधी होकर
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रोता देख हंसी आती है
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पागल आज प्रबल बालियापाल
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बालेश्वर की आँखों के उपकूल में विषाद-अंधकार।
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उसकी तलहटी में जाग रही है भोगराई
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बात कुछ नहीं, सिर झुकाओ, शीघ्र दूर हटो
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जनारण्य में मत घुसो, मत घुसो, ए हिंसक व्याघ्र।
 
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16:01, 25 अक्टूबर 2012 के समय का अवतरण

रचनाकार: रवि सिंह (1932)

जन्मस्थान: नवापाटना, जगतसिंहपुर, कटक

कविता संग्रह: पथप्रांतर कविता(1959), चरमपत्र(1961), शिथिल वलगा(1962), भृकुटी(1963), लाल पैगोडार प्रेत ओ अन्यान्य कविता(1963), विदीर्ण(1964), पादटीका(1965), अप्रीतिकर कविता(1966), ज्वालारे माला(1967), क्षत(1968), विषवाणी(1969), दुर्गम गिरी(1971), झड़(1973), सर्वहरा(1974), अग्निवेद(1981), जमानबंदी(1986), केवल संग्राम(1989), भंगा हातर कविता(1991), झड़ गांधार(1991), लोहित संक्रान्ति(1993), नवम स्वर्ग(1994), 51टि श्रेष्ठ कविता (1996), क्रांति कामोदी(1997), रवि सिंहक प्रेम कविता (1997) ,खसाअ मुकुट(1998)


( बालेश्वर जिले के बालियापाल में प्रक्षेपणास्त्र घाटी
के विरोध में जनांदोलन को उपजीव्य करते हुए।)

मुक्त धान की मंजरी शिखा तुम्हें अच्छी नहीं लगती
नहीं लगते अच्छे तुम्हें शस्य श्यामल खेत, जनपद, मुक्त आकाश तल।
नहीं लगता अच्छा तुम्हें विहंग कुंजन
पिशाच को सिर्फ अच्छा लगता है श्मशान
मौत की घाटी के नव निर्माण की योजना, घमंडी की चाल
जनारण्य में पशु मरेंगे, हे धूसर महाबल !
मनुष्य लिखता है इतिहास अब जाना पहचाना
मनुष्य ने नहीं माना है कभी, मानेगा भी नहीं मौत का हुक्म-नामा

इतिहास से भी कुछ नहीं सीखा
मनुष्य की महानता, मनुष्य नहीं है निरे कीड़े-मकोड़े
मनुष्य बनाता है इस हरभरी धरती को सुंदरी
बंदूक, गोली, कमान, राकेट मनुष्य की कारीगरी
उसी मनुष्य की छाती में बनेगी तुम्हारी राकेट घाटी !

उसके विरोध में जनकंठ की आवाज से गूंज रहा है आकाश
शिशु की तोतली भाषा में विरोध
गांव की चौपाल से तालाब के किनारे से
घूंघट ओढ़े नवविवाहितों के ओठों से
बालियापाल का वृद्ध युवा विद्रोह की ऋतु
इसी ऋतु में द्रवित होती है धरती की धातु
मिट्टी के मनुष्य ने मिट्टी के जबड़े से कसकर पकड़ रखा है मनुष्य का पांव
इसके ऊपर में उदार आकाश, हृदय में जीवन-वेद
उसी आकाश में बारुद के बादल होते हैं शांत
खाकी रंग में डुबकर
गति कल-कल, प्राण छल-छल
चिर उद्वेल जनपद पथप्रांत।

भरी राइफलें लेकर
ताजी और विषाक्त बुलेट गोलियों से
क्या खरीदा जा सकता है मनुष्य का मन ?
हवा के प्रत्येक रंध्र को विदीर्ण करती घृणा की वीणा
जन-यमुना के ज्वार को कभी देखा है ?
सागर भी लगता है डोलने
जनारण्य में उठ रहा है तूफान
बच्चों से लेकर बूढ़ों तक और कुल बालाएँ
रास्ते के राहगीर से लेकर खेत का किसान
छोटा व्यापारी बड़े महाजन
सभी साथ होकर
पीट रहे हैं अपनी दुम इस जलसे में
देख नौकरशाही सरकार
अधिक दिन किसी की भी नहीं चली
मानव-विरोधी होकर
रोता देख हंसी आती है
पागल आज प्रबल बालियापाल
बालेश्वर की आँखों के उपकूल में विषाद-अंधकार।
उसकी तलहटी में जाग रही है भोगराई
घाटी के विरोध में माटी कह रही है
बात कुछ नहीं, सिर झुकाओ, शीघ्र दूर हटो
जनारण्य में मत घुसो, मत घुसो, ए हिंसक व्याघ्र।