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"भुवनेश्वर / जगन्नाथ प्रसाद दास / दिनेश कुमार माली" के अवतरणों में अंतर

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शिल्पांचल की ओर
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अशोक और खारबेल
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रुक जाती है गाड़ी
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होटल की मुखशाला में
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नाप लेते हैं रिक्शे के पहिए
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सामाजिक चेतना के आरोह -अवरोह को।
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भिखारी निकलते हैं बाहर
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बैंक का नक्शा तैयार होता है।
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विदेशी पर्यटकों के कैमेरों में बंद हो जाती है
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अशोकाष्टमी और शिवरात्रि का तात्पर्य
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विद्रोह होता है
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मुंह झुकाए चलते जाते हैं चुपचाप
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ऑफिस से लौटते लोग।
 
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16:15, 25 अक्टूबर 2012 के समय का अवतरण

रचनाकार: जगन्नाथ प्रसाद दास (1935)

जन्मस्थान: बाणपुर, पुरी

कविता संग्रह: प्रथमपुरुष(1971), अन्य सबू मृत्यु(1976), जे जाहार निर्जनता(1979), अन्य देश भिन्न समय(1982), यात्रार प्रथम पाद(1988), आंहिक(1990), स्थिर चित्र(1991), सचराचर(1994), स्मृतिर शहर(1995)


न कोई आवेग था
न कोई उद्वेग
इतिहास के पिछवाड़े से होता है सूर्योदय
संपूर्ण उत्तेजना विहीन
हवाई अड्डे के पीछे
बिलावों के भौकने के साथ
सुबह होती है राजधानी में
साइकिल घंटी और गोश्त दुकान की भीड़ में
खुलते हैं आफिसों के दरवाजें सारे
मंदिर की घंटिया और आरती की ध्वनि

अलग कर देती है कंक्रीट राजपथ
नए और पुराने संपर्क को।
टेलिफोन का तार काट देता है
यक्ष और शलभंजीका का कथोपकथन
नियोन प्रकाश छुपा देता है
रास्ते के अंधेरे से ढके आश्चर्य
अखबारों की हेडलाइन
अर्थहीन कर देती है
किंवदंती के करुणतम रहस्य को।

पहली तारीख के पर्व सभी
शीघ्रता से समाप्त हो जाते हैं
राजा महाराजाओं की वंशावली सहित
जुड़ जाती है मंत्रीमंडल की विवरणिका
कलिंग युद्ध के मैदान में
उतर आते हैं
सेनाओं के दल
निर्णय के अनजान दिनों की तरह
योद्धा जाकर लेते हैं आश्रय
संग्रहालय के गद्दों और अलमारी के भीतर

सिनेमा पोस्टरों के नीचे
गायें सोकर जुगाली करती है
पान की दुकान के आगे
देश का भविष्य
शिल्पांचल की ओर
अशोक और खारबेल
और याद नहीं आ रहा है
एम्प्लायमेंट एक्सचेंज की भीड़ में
रुक जाती है गाड़ी
होटल की मुखशाला में
नाप लेते हैं रिक्शे के पहिए
सामाजिक चेतना के आरोह -अवरोह को।
भिखारी निकलते हैं बाहर
ऐतिहासिक गुफाओं के अंदर से
पुरातात्विक ध्वंस स्तूप के ऊपर
बैंक का नक्शा तैयार होता है।
विदेशी पर्यटकों के कैमेरों में बंद हो जाती है
अशोकाष्टमी और शिवरात्रि का तात्पर्य

फाइलों पर धूल का जमाव
मंदिर के सारे शिखर
अकारण ऊपर देखते रहते हैं
शाम के समय उड़ते हवाई जहाज
दीवारों पर लिखे स्लोगनों में
विद्रोह होता है
मुंह झुकाए चलते जाते हैं चुपचाप
ऑफिस से लौटते लोग।