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+ | गिर जाएंगे बगीचे के फूल | ||
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+ | ये सारी बातें सोच-सोचकर | ||
+ | कब सवेरा हो गया | ||
+ | पता ही नहीं चला मगर | ||
+ | बाढ़ की जगह बदली की खबर | ||
+ | सुनकर बहुत दुख लगा। | ||
+ | कुत्ते ने माँस खाया या नहीं | ||
+ | और देखने का समय नहीं | ||
+ | जर्सी गाय ने विलायती घास खाई या नहीं | ||
+ | देखने का समय नहीं | ||
+ | अखबार भी पढ़ने की | ||
+ | आज और इच्छा नहीं हो रही। | ||
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22:00, 25 अक्टूबर 2012 के समय का अवतरण
रचनाकार: प्रसन्न पाटशानी (1947)
जन्मस्थान: बालुगांव, पुरी
कविता संग्रह: लेनिन(1976), बाघ आँ भितरे पिकनिक(1976), वर्षा(1981), शहे एक कविता(87), खोर्द्धार कविता मुँ पढ़े(1988), अमरनाथ(1990), देखा हेले कहिबि से कथा(1990) आकाशर काठगड़ारे बंदी सूर्यंकु जेरा(1992) नील नूपुर(1992), साप गातरे सकाल, रक्तपथ
आकाश
दिख रहा था
बड़े साहब के आंगन की तरह
चन्द्रमा की तरह सफेद विलायती कुत्तिया
मुंह छुपाकर सोई पड़ी थी
बादलों के बरामदे में।
तारें
पके मांस के टुकड़ों की तरह
छितरे पड़े थे।
ग्रहों का प्रकाश
हाथ जैसे झूल रहा था
बादलों के दांतों में।
कुत्ते के मुंह से
लार की तरह गिर रही थी
बीच- बीच में
आकाश से पानी की बूँदें
भिगो देती थी धीरे-धीरे
बगीचे के पास के रास्ते को।
आज का संध्या-भ्रमण निरस्त
मैम- साहिबा मिट्टी के हृदय
के ऊपर मदिरा के प्याले की तरह
ढलढल हो रही थी
रात्रि की अलस तंद्रा में।
फाइलों का काम करना होगा
रिलीफ मिला या नहीं
बाढ़ का पानी कम हुआ या नहीं
मैम- साहिबा ने पूछा
“महानदी में तो पानी ही नहीं
फिर बाढ़ आई कब ?
जैसे तुम ऊपरी न मिलने पर
अचानक बरस पड़ते हो मेरे ऊपर
वैसे ही थोड़ी वर्षा होने पर
बाढ़ भी ऊफान पर आ गई
अखबारों के पन्नों पर।"
सावधानी नहीं रखने पर
कुत्ते के गले से खुल जाएगी जंजीर
गिर जाएंगे बगीचे के फूल
बिल्कुल नींद नहीं आएगी रात में
ये सारी बातें सोच-सोचकर
कब सवेरा हो गया
पता ही नहीं चला मगर
बाढ़ की जगह बदली की खबर
सुनकर बहुत दुख लगा।
कुत्ते ने माँस खाया या नहीं
और देखने का समय नहीं
जर्सी गाय ने विलायती घास खाई या नहीं
देखने का समय नहीं
अखबार भी पढ़ने की
आज और इच्छा नहीं हो रही।