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+ | तुम आत्मप्रत्यय की तरह अकेले और अनासक्त। | ||
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+ | राक्षस तो नपुंसक हैं | ||
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+ | मैं बलात्कार करने आया था | ||
+ | तुमने प्राण फैलाकर दे दिया मुझे | ||
+ | शाश्वत प्रेम। | ||
+ | मुझे आघात करना आता है | ||
+ | तुम्हारे हाथों से अपना आलिंगन करवाने के लिए। | ||
+ | मैने दंश दिया, | ||
+ | तुमने चुम्बन-चुम्बन से | ||
+ | पत्थरों में पैदा कर दी सिहरन । | ||
+ | सारे पौरूषेय के स्त्रोत | ||
+ | तुम्हारी जलती हुई यज्ञवेदी की तरह योनिपीठ में | ||
+ | मैं आत्माहुति दे रहा हूँ माँ | ||
+ | मुझे तुम आत्मजयी प्रेमी का | ||
+ | पुनर्जन्म प्रदान करो। | ||
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22:12, 25 अक्टूबर 2012 के समय का अवतरण
रचनाकार: चंद्र मिश्र (1952-?)
जन्मस्थान:
कविता संग्रह: 24वर्षर चंद्र मिश्र
महर्षियों के वीर्य से निर्मित तुम्हारे शरीर के गोरे अंगों से
छल-कपट के सारे वस्त्र उतारकर
जीवन का बोझ ढोने में अक्षम मेरे कंधों पर
सपनों के पंखों में तुम्हारे चरण
निषिद्ध नायिकाओं के दुस्साहस निर्मित अव्यर्थ अस्त्र
घोप दिए मेरे हृदयहीन छाती में
रतिनिबिड़ आलिंगनबद्ध तुम्हारे सशक्त हाथों ने
कसकर पकड़ रखा है चिरकाल
चिंता में डूबे मेरे सिर को,
मैं वीभत्स नपुंसक
मेरे भीतर खोज रही हो
तुम एक समर्थ प्रेमी।
कपटी राक्षस के खोल के अंदर
मैं हूँ धूर्त महिषी की हीन-मन्यता देवी
अहंकार का प्रत्येक अट्टहास
मेरी असामर्थ्यता का गुप्त रूदन,
भय और संदेह
मेरे दो नुकीले सींग,
अपने आप पर गहरा अविश्वास ही
मेरा अत्याचारी सैन्यसामंत ।
तुम आत्मप्रत्यय की तरह अकेले और अनासक्त।
मैं बर्बर आक्रमक की ग्लानि जैसे पलातक
तुम सत्य की तरह नग्न
जिसके अमरत्व के वर और कवच में
ढका है मैने अपना ध्वजभंग ।
मैं दूसरों को नंगा कर सकता हूँ रात के अंधेरे में
किंतु डरता हूँ स्वयं को निर्वस्त्र करने से
यहाँ तक स्वयं के सामने भी।
राक्षस तो नपुंसक हैं
तुम हो प्रेमलीला में निपुण सन्यासी की
कोणार्क की सर्वांगसुंदर कामकला ।
मैं बलात्कार करने आया था
तुमने प्राण फैलाकर दे दिया मुझे
शाश्वत प्रेम।
मुझे आघात करना आता है
तुम्हारे हाथों से अपना आलिंगन करवाने के लिए।
मैने दंश दिया,
तुमने चुम्बन-चुम्बन से
पत्थरों में पैदा कर दी सिहरन ।
सारे पौरूषेय के स्त्रोत
तुम्हारी जलती हुई यज्ञवेदी की तरह योनिपीठ में
मैं आत्माहुति दे रहा हूँ माँ
मुझे तुम आत्मजयी प्रेमी का
पुनर्जन्म प्रदान करो।