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+ | कभी काट डालता है | ||
+ | उसके बराबरी में उठने वाले | ||
+ | दूसरे हाथों को। | ||
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21:40, 26 अक्टूबर 2012 के समय का अवतरण
रचनाकार: खिरोद कुंवर (1964)
जन्मस्थान: राजपुर, ब्रजराजनगर
कविता संग्रह: गाँ घर रे कथा (2005), पाहा तलरे छाएं (2010)
काई लगी दीवार से
खिसकती है जैसे
पुरानी चिपकी हुई मिट्टी
हाथ से खिसक जाते हैं वैसे
प्यार, मुहब्बत और अपनापन।
आग से खेलते खेलते
फुर्सत कहाँ मिलती है हाथ को ?
अपना पराया,ईर्ष्या आलोचना का समय तो
पहले से ही खत्म हो गया ।
हाथ में अब कहाँ रह गया
वह जादू
उम्र की तलवार धार जैसे चढाव
चढने वाले लोगों में ।
कहीं यह हाथ बहुरूपिया तो नहीं
या फिर अंधेरी तंग गली में
रेंगने वाला कोई सांप ?
खूब लंबी पहुँच वाले हाथ
असंभव को संभव करने वाले हाथ के करीब
रहने के लिए हर कोई आतुर
भले कुछ भी हो उसकी प्रकृति।
क्या हाथ शरीर के नियंत्रण में होता है,
विवेक की सुनता है ?
या फिर यह हाथ
अमृत की तलाश में भटकती कोई जोंक ?
शिखर पर पहुँचने के लिए
निर्लज्ज होकर जोडता रहता है
हाथ बार-बार
कभी काट डालता है
उसके बराबरी में उठने वाले
दूसरे हाथों को।