"आत्मज्ञान / सूरदास" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} अपुनपौ आपुन ही बिसर्यौ । जैसे स्वान काँच-म...) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 10: | पंक्ति 10: | ||
ज्यौं सौरभ मृग-नाभि बसत है, द्रुम तृन सूँधि फिर्यौ । | ज्यौं सौरभ मृग-नाभि बसत है, द्रुम तृन सूँधि फिर्यौ । | ||
+ | |||
ज्यौं सपने मै रंक भूप भयौ, तसकर अरि पकर्यौ । | ज्यौं सपने मै रंक भूप भयौ, तसकर अरि पकर्यौ । | ||
19:13, 9 अक्टूबर 2007 के समय का अवतरण
अपुनपौ आपुन ही बिसर्यौ ।
जैसे स्वान काँच-मंदिर मैं, भ्रमि-भ्रमि भूकि पर्यौ ।
ज्यौं सौरभ मृग-नाभि बसत है, द्रुम तृन सूँधि फिर्यौ ।
ज्यौं सपने मै रंक भूप भयौ, तसकर अरि पकर्यौ ।
ज्यौं केहरि प्रतिबिंब देखि कै, आपन कूप पर्यौ ।
जैसें गज लखि फटिकसिला मैं, दसननि जाइ अर्यौ ।
मर्कट मूठि छाँड़ि नहीं दीनी, घर-घर-द्वार फिर्यौ ।
सूरदास नलिनी कौ सुवटा, कहि कौनैं पकर्यौ ॥1॥
अपुनपौ आपुन ही मैं पायौ ।
सब्दहि सब्द भयौ उजियारो, सतगुरु भेद बतायौ ।
ज्यौं कुरंग-नाभी कस्तूरी, ढूँढ़त फिरत भुलायौ ।
फिरि चितयौ जब चेतन ह्वै करि, अपनैं ही तन छायौ ।
राज-कुमारि कंठ-मनि-भूषन भ्रम भयौ कहूँ गँवायौ ।
दियौ बताइ और सखियनि तब, तनु कौ ताप नसायौ ।
सपने माहिं नारि कौं भ्रम भयौ, बालक कहूँ हिरायौ ।
जागि लख्यौ, ज्यौं कौ त्यौं ही है, ना कहूँ गयौ न आयौ ।
सूरदास समुझे को यह गति, मनहीं मन मुसुकायौ ।
कहि न जाइ या सुख की महिमा, ज्यौं गूँगैं गुर खायौ ॥2॥